– मनोज श्रीवास्तव
(अतिरिक्त मुख्य सचिव
प्रबंधन निदेशक डेयरी फेडरेशन
पशुपालन, अध्यात्म विभाग)
अभी कुछ दिनों पूर्व जब आचार्य विद्यासागर जी से मेरी पहली मुलाकात हुई तो मुझे उनका हिन्दी भाषा के प्रति प्रेम देख कर बहुत अच्छा लगा। किन्तु जब मैंने उनका महाकाव्य ‘ मूक माटी’ पढ़ा तो मुझे यह तय करना मुश्किल हो गया कि उनका भाषा प्रेम अधिक है या भाषाधिकार। यह एक बड़े आनंद का प्रसंग है कि विद्यासागर जी सहित बहुत से जैनाचार्यों को मैंने बहुत ही रचनात्मक, बहुत ही सृजन शील होकर साहित्य और कविता की सेवा करते हुए देखा है और मैं यह कह सकता हूँ कि आनुपातिक रूप से जितनी रचनाधर्मिता (क्रिएटिविटी) उन्होंने दिखाई है, समकालीन भारत में किसी और पंथ और मत ने नहीं दिखाई।
मुनि क्षमासागर जी की कविताएं मुझे याद आती हैं। ज्ञानसागर जी ने संस्कृत में चार महाकाव्य लिखे। मुनि मधुकर जी की ‘गुंजन’ या ‘स्वर गूंजे निर्माण के’ जैसी काव्य कृतियाँ। मुझे कई बार आश्चर्य होता है कि इन जैनाचार्यों की इतनी रागमुक्ति, इतनी वीतकामता, इतनी विरति, इतनी अनीहा के बाद भी इतनी रस-राशि इनकी कविता में कैसे उतर आती है। विद्यासागर जी की यह महाकविता जिसका नाम ‘मूकमाटी’ है, को पढ़ते हुए मुझे लगा कि उन जैसे निरस्तराग, उन जैसे विरजस्क, उन जैसे जितसंग, उन जैसे निवृतात्मा ने कैसे सम्मोहित करने वाली कृति लिखी है। एक बार आरंभ करो तो फिर आप उसकी वशिमा से छूट ही नहीं पाते। क्या यह कुछ फ्रेंच मनोवैज्ञानिक ‘कुए’ के ‘लॉ ऑफ रिवर्स इफेक्ट’ जैसा कुछ है कि जो तुरायण को प्राप्त कर गया उसी ने तृषा को जाना, कि जो कैवल्य पर पहुंचा उसी ने कशिश की क्रीड़ा पहचानी।
आस्था और संस्कार चैनल पर प्रतिदिन हम विद्वान संतों को प्रवचन आम जनता को देते हुए देखते हैं, प्राय: वह व्याख्या, टीका और भाष्य होता है और मैं उसकी कोई अवगणना भी नहीं करना चाहता, उसका भी उपयोग और महत्व है लेकिन कई बार वह लोएस्ट कॉमन डिनोमिनेटर प्रोग्रामिंग है। वह सर्जना नहीं है। किसी कला-कृति को अस्तित्व में लाना एक अलग ही तरह का प्रसव है और प्रसव व प्रसंस्करण में फर्क होता है। उस रचना समय की विधायकता हमें किसी हद तक सिरजनहार के प्रकोष्ठ में ला खड़ा करती है। किसी काव्य का सृष्टा अपनी रचना से उस एक ऋण को किसी हद तक उतारता है जो इस सृष्टि में उसे लाने वाली माँ का ऋण है। वह रचयित्री हमारे कृतित्व से ही अपने चरणों में किसी आभार-पुष्प की छुअन महसूस करती है।
बहरहाल मैंने बात जिससे शुरू की थी, उस पर आऊं। बात थी कि नए युग के गुरू सर्जन में नहीं, अर्जन में व्यस्त हैं। उन्हें सेलेब्रिटी स्टेट्स है और उनका मीडिया प्रमोशन भी असाधारण है। यह एक ‘डिज़ाइनर रिलीजन’ का दौर है। लेकिन जिसे कविता कहते हैं, वह उन्हें उपलब्ध नहीं है। जिसे शक्तिशाली भावनाओं का स्वत:स्फूर्त उच्छलन कहते हैं, वह उन्हें उपलब्ध नहीं है। सह्दय की रस-निष्पत्ति अध्यात्म के बाजार की रसकेलि और रसरंग से कुछ दूसरी ही चीज है। आचार्य श्री जी की यह महाकविता इन सबके बीच एक अलग ही रस-भूमि पर खड़ी है बल्कि जैसा कि इस कविता-पुस्तक का नाम और विषय-वस्तु है यह भूमि का रस बताने वाली कृति है। मूक माटी। आचार्य श्री ने इस पुस्तक में रस-चर्चा भी सविस्तार से की है।
उन्होंने इन काव्य-रसों की शक्तियों और सीमाओं पर एक बिल्कुल अलग ही अंदाज में चर्चा की है जो रस-सिद्धान्त शास्त्रियों के लिए भी सर्वथा अनूठी घटना है। खेद-भाव और वेद-भाव, रूद्रता और भद्रता, अभय और भय, संगीत और संगातीत, विषय- लोलुपिनी और विषय़-लोपिनी करूणाएं जैसी अनेक ऐसी उद्भावनाओं को वे सामने लाए हैं कि रसशास्त्र के इतिहास में एक नई लकीर खिंच गई है। अध्यात्म का वाणिज्यीकरण करने वाले रस के इस विवेचन से दूर हैं। यह रस मन के निर्माल्य से उपजता है। कविता सुखासक्ति में संभव नहीं होती।
वह तो विद्यासागर जी जैसे आत्मजयी और विगतस्पृही संत के निर्विण्ण अनुभव का प्रसाद है। एक तप: पूत ह्दय का। मुझे याद पड़ता है कि चार्ल्स बोदलेयर ने ‘पाप के पुष्प’ (फ्लावर्स ऑफ ईविल) नामक कविता पुस्तक लिखी थी। आचार्य श्री की यह कृति उसके ठीक दूसरे ध्रुवांत पर है। यह पुण्य-पुष्प है। कई बार आचार्य श्री की इस महाकविता में शब्द लिखे कुछ दूसरे प्रसंग में गए हैं, लेकिन वे अपने प्रसंग की परिधि को लांघकर आज ज्यादा प्रासंगिक लगते हैं। यह पुस्तक तो आज से कई दशकों पूर्व लिखी गई थी।
लेकिन इसकी ये पंक्तियाँ देखकर मुझे लगा कि इन्हें अभी 29 सितंबर के बाद लिखा गया है : अब चारों ओर से घिर गया आतंकवाद/ जहाँ देखो वहाँ सर्वत्र/ यह प्रथम घटना है कि आतंकवाद ही/ स्वयं आतंकित हुआ/ पीछे हटने की स्थिति में है वह/ काला तो पहले से ही था वह/ काल को सम्मुख देखकर/ और काला हुआ उसका मुख! यह एक श्रेष्ठ कविता की निशानी होती है। उसके शब्द समय की वादियों में बहुत देर तक, बहुत दूर तक गूंजते हैं। इस एपिक पोएम को फ्री वर्स में लिखा गया है। मुक्त छंद में इसे लिखने से रचनाकार ने इसमें काफी छूटें ले ली हैं। सो आपको इसमें गणितीय अंकों के जादू पर, नौ और निन्यानवे पर भी गैर-काव्यात्मक लगने वाली चर्चा मिल जाएगी क्योंकि मुक्त छंद इस तरह की चीजों को ज्यादा सहिष्णुता से अकॉमोडेट कर लेता है। मुक्त छंद एक ओपन फार्म और पोएट्री है।
सो आचार्य श्री ने इस ओपन फार्म का पूरा लाभ उठाया है और उन्हीं के इस पुस्तक में बताए एक सूत्र के अनुसार इस लाभ से भला ही हुआ है। हेनरी बी. फुलर ने मुक्त छंद को न तो कविता कहा और न गद्य। उन्होंने इसे दुपहर और मध्यरात्रि के बीच संध्या की सीमाभूमि कहा। ये कविता इसी बार्डरलैंड ऑफ डस्क की कविता है। बल्कि मैं थोड़े संशोधन के साथ कहूंगा कि यह बार्डर लैंड ऑफ डॉन की कविता है। भोर-भूमि की। और संशोधन करके कहूंगा कि यह विभोर- भूमि की कविता है।
और यह एक प्रलंब कविता है। लांग पोएम। मुक्तिबोध की ‘अंधेरे में’ कविता की तरह लंबी। पेट्रिशिया हिल कहती थीं कि Life is too short to write long poems.. कि जीवन इतना छोटा है कि लंबी कविताएँ नहीं लिखी जा सकतीं। लेकिन आचार्य विद्यासागर जी तो उस विश्वास-परंपरा, उस ज्ञान-प्रणाली के हैं जो जीवन की चिरकालीनता, जीवन के नैरन्तर्य और जीवन की सनातनता का सम्मान करती है। अत: एपिक पोएम लिखना उनके लिए उचित ही था। आचार्य जी ने ठीक ही इसे एपिक या महाकाव्य न कहकर एपिक पोएम कहा है। सो महाकाव्य की बाउंड्रीज पर इसके पुश और पुल बड़े दिलचस्प बन पड़े हैं।
और आचार्य श्री कवि-स्वभाव के हैं, इसका प्रमाण शब्दों के साथ उनकी क्रीडा और कौतुक में बार-बार दिखता है। वातानुकूलता और बातानुकूलता राख-खरा, याद-दया, कृपाण-कृपा न, कम बल- कम्बल, नमन- नम न जैसे शब्दों से ही उनका नया अर्थ-संदर्भ निकालना, कुमारी-स्त्री-सुता-अबला-नारी जैसे शब्दों की नई व्याख्याएँ शब्द से ही extract कर लेने जैसे बहुत से प्रयोगों से वे linguistic fossils में, भाषाई जीवाश्मों में एक कौतुकार्थ के प्राण फूंकते हैं। वे set phrases को अपनी नई तरह की word-pairing से unsettle कर देते हैं। वे शब्द से ही तर्क की रोचक कमाई करते हैं, और अपनी ही अनंत आवृत्ति से थक गए शब्दों का ऊर्जायन-सा करते हैं। इसमें कुछ अटपटा लगे भी तो क्या। क्या जेम्स ज्वायस के उपन्यास finnegans wake (1939) के तीसरे पैराग्राफ में भी ऐसे ही प्रयोग नहीं मिलते? आपके लगता है कि वह उपन्यास था और यह कविता है। तो निराला के ‘ताक कमसिन वारिÓ से लेकर प्रयोगवाद और अकविता के अनुभवों के बारे में क्या कहेंगे?
सो जिसका जीवन कविता हो गया हो, उसकी कविता जीवनदायिनी हो ही जाती है।
साभार : रविंद्र जैन (पत्रकार, भोपाल)
Jai Jinendra Ji
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Namostu Gurudev
Jai Jai Gurudev
Jaikara Gurudev Ka Jai Jai Gurudev
Jai Ho Shri Acharya Bhagwan Vidhyasagar Ji Maha Muniraj Ki Jai Ho
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Jainam Jayatu Shasanam……
Namostu Acharya Shree Ji……..
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