ये जो संत हैं,
साक्षात् अरिहंत हैं।
मेरे भगवन्त हैं,
अनादि अनन्त हैं।
वीतराग संत हैं,
स्वयं एक पंथ हैं।
दीप ये ज्वलंत हैं,
चारित्र की पतंग हैं।
न होगा इनका अंत है,
शास्वत जीवन्त हैं।
गुरुवर महंत हैं,
णमोकार मन्त्र हैं।
खींच लेते सबको,
न जाने कैसा इनमे तंत्र है।
ज्ञान से उत्पन्न हैं,
न इनमें कोई पंक है।
मल्लप्पा के नन्द हैं,
पूर्णिमा के चन्द हैं।
मुस्कान इनकी मन्द है,
कुन्दकुन्द कुन्द हैं।
दंद है न फन्द है,
न इनमे कोई द्वन्द है।
न सुगंध है न दुर्गन्ध है,
सिर्फ आती इनको गंध है।
गर राग की कहीं गंध है,
तो घ्राण इनकी बंद है।
सृष्टि में ये वंद हैं,
पाप इनसे तंग हैं।
गर लौह हे न जंग है,
अतिशय इनके संग है।
गौर इनका रंग हैं,
विशुद्ध अंतरंग है।
शिथिलता इनसे भंग है,
निराला इनका ढंग है।
महावीर के अंश हैं,
मुनिवरों के वंश हैं।
न चर्या में कोई तंज हैं,
राजसरोवर के हंस हैं।
अगण्य ये अंक हैं,
अकाट्य ये शंख हैं।
इतिहास के शैल पर,
अमर नाम आपका टंक है।
न होते कभी कंप हैं,
अकम्प से ये खम्भ हैं।
गरीब हैं, कंगाल हैं,
बेहाल इनके हाल हैं।
फिर भी अपने भक्तों को,
कर देते मालामाल हैं।
चक्रवर्ती और कुबेर भी,
झुकाते अपना भाल हैं।
महिमा को गाते गाते,
बीत जाते कई साल हैं।
प्रतिभा की आन हैं,
हथकरघा की बान हैं।
गोरक्षकों की शान,
मेरे गुरुवर महान हैं।
हिंदी का सम्मान हैं,
हिन्द हुन्दुस्तान हैं।
न मान न गुमान है,
गुरूजी को स्वाभिमान है।
धर्म्य शुक्ल ध्यान हैं,
वर्तमान के वर्धमान हैं।
हम सबके भगवान हैं,
मेरा बौना गुणगान हैं।
ब्रम्हा हैं महेश हैं,
विष्णु हैं गणेश हैं।
कलंक न ही शेष है,
गुणों में ये अशेष हैं।
न राग है न द्वेष है,
न भय है न क्लेश है।
ज्ञान ध्यान तप में ही,
रहते लीन हमेश हैं।
शान्ति के ये दूत हैं,
वीर के सपूत हैं।
शिवनायक चिद्रूप हैं,
ज्ञान ये अनूप हैं।
विद्या रूपी बगिया में,
सुगंधमयी कूप हैं।
वीर से ये शांत हैं,
अद्भुत सिद्धान्त हैं।
धर्म अनेकान्त हैं,
निर्मल वृतान्त हैं।
ज्ञान की बसंत हैं,
जयवन्त हैं, जयवन्त हैं।
उपकारी अनन्त हैं,
जयवन्त हैं जयवन्त हैं।
मेरे भगवन्त हैं,
जयवन्त हैं जयवन्त है।-अभिषेक जैन कुरवाई (सांगानेर)