यह सब मैने ‘श्रीधर’ तीर्थकर की दिव्य ध्वनि में सुना है। हे! बुद्धिमान अब तू आज से संसार रूपी अटवी में गिराने वाले मिथ्यामार्ग से विरत हो, और आत्मा का हित करने वाले मार्ग में रमण कर।’ इस प्रकार सिंह ने मुनिराज के वचनों का ॉदय में धारण कर मुनिराज को भक्ति भाव से बार – बार प्रदक्षिणायें दी, बार – बार प्रणाम किया शीघ्र सम्यक्त्व की प्राप्ति की और श्रावक – सम बन गया।
इस प्रकार व्रतों का पालन करते हुए अन्त समय में सन्यास धारण कर वहू एकाग्रचित से मरा और शीघ्र ही सौधर्म स्वर्ग में सिंहकेतु नाम का देव हुआ। दो सागर पर्यन्त रहकर वहाँ से च्युत होकर धातकीखण्ड के पूर्व विदेह की मंगलावती देष के विजयार्ध पर्वत की उŸाम क्षेणी में अत्यन्त श्रेष्ठ कनकप्रभ नगर के राजा नकपंुख विद्याधर और कनकमाला रानी के गर्भ से कनकोज्जवल नाम का पुत्र हुआ। किसी दिन मंदर पर्वत पर प्रियमित्र मुनिराज से दीक्षा लेकर अन्त में समाधि से मरण कर सातवें स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ से च्युत होकर इसी अयोध्या नगरी के राजा वज्रसेन की शीलवती रानी से हरिषेण नाम का पुत्र हुआ। इसने भी राज्यभार को छोड़कर श्री श्रतुसागर मुनिराज के समीप दीक्षा लेकर आयु के अन्त में महाषुक्र स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ से च्युत होकर धातकीखण्ड के पूर्व विदेह सम्बन्धी पुष्कलावती देष की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा सुमित्र और उनकी मनोरमा से प्रियमित्र नाम का पुत्र हुआ। इन प्रियमित्र ने चक्रवर्ती पद के वैभव को प्राप्त किया।
गर्भावतरण –
जब इस इन्द्र की आयु छह महीने बाकी रही थी तब इसी भरतक्षेत्र के विदेह नामक देष सम्बन्धी कुण्डलपुर नगर के राजा ‘सिद्धार्थ’ के भवन के आंगन में सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर के द्वारा की गयी प्रतिदिन साढ़े तीन करोड़ रत्नों की मोटी धारा चार समय बरसने लगी। आषाढ़ शुक्ला षष्ठी की रात्रि के पिछले प्रहर में सिद्धार्थ महाराज की रानी प्रियकारिणी ने सोलह स्वप्न देखे एवं प्रभात में पतिदेव से उन स्वप्नों का फल सुनकर सन्तोष प्राप्त किया।
भगवान् महावीर का जन्म उत्सव –
नव मास व्यतीत होने के बाद चैत्र शुक्ला त्रयोदषी के दिन माता त्रिषला ने पुत्र को जन्म दिया। उस समय सारे विष्व में हर्ष की लहर दौड़ गयी। देवों के स्थान में बिना बजाये वाद्य ध्वनि होने लगी। सौधर्म इन्द्र का आसन कम्पायमान हो गया। अवधिज्ञान के बल से तीर्थकर महापुरूष के जन्म को जानकर इन्द्र ऐरावत हाथी पर बैठकर अपने वैभव के साथ आकर कुंडलपुर नगर की प्रदिक्षणा करके जिन बालक को लेकर सुमेरू पर्वत पर गए और वहाँ क्षीरसागर के जल से भरे कलषों द्वारा पांडुक षिला पर उनका अभिषेकोत्सव मनाया। पुनः उŸामोŸाम आभूषण से विभूषित करके इन्द्र ने ‘वीर’ और ‘वर्द्धमान’ ऐसे दो नाम रखे और वापस लाकर माता – पिता को देकर देवलोक चले गए।
भगवान् की बाल्यकाल की विषेषताएं –
किसी समय भगवान् बालकों के साथ वन में खेल रहे थे। संगम नामक देव उनके धैर्य की परीक्षा करने के लिए सौ जिÐा युक्त अत्यन्त भंयकर सर्प का रूप लेकर वृक्ष की जड़ से स्कन्ध तक लिपट गया। सब बालक भय से काँप उठे किन्तु भगवान वीर बालक निर्भय होकर उसके फण पर पैर रखकर उतर आये और उसके साथ क्रीड़ा करने लगे। तब संगम देव ने भक्तिवष भगवान् की स्तुति करके ‘महावीर’ यह नाम घोषित किया था।
भगवान् महावीर का दीक्षा महोत्सव –
इस प्रकार से तीस वर्ष का कुमार काल व्यतीत हो जाने के बाद एक दिन स्वयं ही भगवान् को जाति स्मरण हो जाने से वैराग्य हो गया।
भगवान् का उपसर्ग विजय –
किसी एक दिन अतिषय धीर-वीर भगवान् वर्धमान उज्जयिनी नगरी के अतिमुक्तक नामक श्मषान में प्रतिमा योग से विराजमान थे। उन्हें देखकर महादेव नामक रूद्र ने अपनी दुष्टता से उनके धैर्य की परीक्षा करनी चाही। उसने रात्रि के समय ऐसे अनेक बड़े – बड़े बेतालों का रूप बनाकर भयंकर उपसर्ग किया। जब वह भगवान् को ध्यान से चलायमान करने में समर्थ नहीं हुआ तब अन्त में भगवान् का ‘महति महावीर’ यह नाम रखकर अनेक प्रकार की स्तुति की।
चन्दना के द्वारा भगवान् का आहार –
कौशाम्बी नगरी में आहारार्थ भगवान् महावीर स्वामी आये। उन्हें नगरी में प्रवेष करते देख चन्दना उनके सामने जाने लगी। उसी समय उसके सांकल के सब बन्धन टूट गये। मुँड़ायें हुए सिर पर केष आ गए। वह वस्त्राभरण से सुन्दर हो गई और भक्तिभार से झुकी हुई नवधा भक्ति समेत आहार देने को तत्पर हुई। शील के माहात्म्य से उसका मिट्टी का सकोरा सुवर्ण पात्र बन गया और कोदों का भात शाली चावलों का भात हो गया। उन बुद्धिमती चन्दना ने विधिपूर्वक पड़गाहन करके भगवान को आहार दान दिया इसलिऐ उसके यहाँ पंचाष्चर्याें की वर्षा हुई और भाई – बन्धुओं के साथ उसका समागम हो गया।
इस समवसरण में बारह सभा में मनुष्य, देव, तिर्य॰च आदि बैठे। किन्तु भगवान् की दिव्यधवनि नहीं खिरी।
आन्ध्र और उषीनर आदि नाना देषों में पद विहार करते हुए जैनषासन की 29 वर्ष 5 माह 19 दिन तक महती प्रभावना की। अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त ये तीन महावीर मौलिक सिद्धान्त थे।
भगवान महावीर का निर्वाण गमन –
अन्त में भगवान महावीर मंगल विहार करते हुए मध्यम पावापुर पहुंचे। पावापुर के हस्तिपाल राजा के सभागृह के बाह्य भाग में योग निरोध धारण कर लिया। कर्म की शेष सम्पूर्ण प्रकृतियाँ तड़ – तड़ टूटने लगीं। कार्तिक, कृष्णा अमावस्या, 15 अक्टूबर मंगलवान, 527 ई. पू. में जब स्वाति नक्षत्र उपस्थित था। ‘चहुँ ओर काली अंधियारी छाई हुई थी।’’ तभी प्रभु ने उषःकाल में आत्मसिद्धि को प्राप्त कर लिया। एक आत्मा परिषुद्ध हो गई। वह अनन्तकालीन दुःख परम्परा से सदा-सदा के लिए छुटकारा पा गई। ऐसा सोच – सोचकर हर्ष से प्रसन्नमना अमावस्या भी पूनम हो गई।
‘‘आज जयन्ती महावीर की देखो आई,
प्राणी मात्र की रक्षा का व्रत धारो भाई,
ऐसा कुछ सत काम करो, हिंसा मिट जाये,
मानव मानव बने, न फिर हो कहीं लड़ाई’’
श्रीमती सुशीला पाटनी
आर. के. हाऊस, मदनगंज- किशनगढ
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