श्री निर्मलकुमार पाटोदी
“विद्या-निलय” शांति निकेतन
(बॉम्बे हॉस्पिटल के पास) इन्दौर (म.प्र.)
दुनिया में रोम व वाराणसी कुछ ऐसे स्थल विद्यमान है जो प्राचीनकाल से हैं। श्रवणबैडगोड का नाम भी इसी श्रेणी में है। कर्नाटक अन्य किसी भी स्थान का इतिहास इतना दीर्घकालीन और अविच्छिन्न नहीं है। चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में इसे काल-बौधु कहा जाता था। चिक्क बैट (छोटी पहाड़ी) चन्द्रगिरि कहलाती है। यह बस्ति चन्द्रगुप्त द्वारा बनवाई गई है। गोम्मट विग्रह डोड्डबैट्ट (बड़ी पहाड़ी) पर अवस्थित है। जिसे इन्द्रगिरि भी कहा जाता है। इस स्थल पर विशाल सरोवर है। अनुश्रुतिनुसार गोम्मटेश्वर के प्रथम अभिषेक के समय चमत्कारी रूप से अभिषेक करने के लिए (महामस्तकाभिषेक), किया गया तो कुण्ड भर गया था।
चामुण्डराय के गुरु ने सँस्कृत में उसे ‘श्वेत सरोवर’ की संज्ञा दी। कन्नडिग इसे बैलगोल के नाम से जानते हैं। यह क्षेत्र ‘ऋषि-बाहुबली’ की खड़गासन मूर्ति के कारण परम-पावन है। इसलिए इसे ‘श्रवणबेलगोल’ के नाम से पुकारते हैं। अभिलेखों के अनुसार होयसला नरेश के कोषाध्यक्ष ने एक बसदि बनवाई थी, जो भण्डारी बसदि के नाम से प्रसिद्ध है। होयसला नरेशों के सेनापति और मंत्री जैन थे। ‘गंगराज’ जिन्होने श्रवणबेलगोल के नज़दीक जिननाथपुर की स्थापना की थी और सुप्रसिद्ध शांतिनाथ भगवान का मंदिर बनवाया था। भरतेश्वर ने उसकी सीढ़ियाँ और चबूतरें बनवाए थे। चिक्क देवराजा वोडेयर ने कुण्ड का निर्माण भक्ति-भाव से करवाया था।
वास्तुकला की चालुक्य, विजयनगर तथा होयसला शैलीयुक्त मूर्तिकला भी श्रवणबेलगोल में विद्यमान है। विश्वविख्यात श्रवणबेलगोल ऐसा धर्म का तीर्थ क्षेत्र है जहाँ यात्री भाषा व धर्म के भेदभाव से रहित होकर श्रद्धा, आस्था के साथ भक्तिरस हो जाते हैं। इस अध्यात्मिक क्षेत्र के सम्राट बाहुबली गोम्मट हैं। गोम्मट-जिन बाहुबली स्वामी भारतीय संस्कृति, विशेषत: श्रमण-संस्कृति के इतिहास में एक महान प्रेरणा-स्त्रोत महापुरुष के रूप में नमस्करणीय, वंदनीय तथा पूजनीय हैं। उन्हें बाहुबली, भुजबली, दौर्वलीश (दुर्बलों का इश ), पोदनेश, नाभिपौत्र, वृषभपुत्र गोम्मटेश, गोम्मटजिन, दक्षिण कुक्कट जिन आदि अनेक नामों से श्रद्धा-भक्ति से पुकारा जाता है। इन नामों में शक्ति, सौन्दर्य के स्वामित्व के साथ-साथ अनाशक्ति, संयम, जितेन्द्रियता, तप:साधना शामिल है।
कर्नाटक के हासन जिले के श्रवणबेलगोला में स्थित भगवान बाहुबली की ईसवी सन् ९८१ में विन्ध्यगिरि पहाड़ पर ५८.८ फ़ुट ऊँची विशालकाय एक पाषाण में उत्कीर्ण भव्य, विश्वाश्चर्य, मनोहारी प्रतिमा जी के निर्माण में शिल्पियों ने अद्भुत कला का परिचय दिया है। यह उनके खगोल-विज्ञान और भौतिक- विज्ञान का भी अनुपम परिचय है। प्रतिमा का निर्माण एवं प्रतिष्ठा इस पद्धति से की गई है कि इसकी छाया धरती पर नहीं होती है। प्रतिमा का प्रतिष्ठा अभिषेक भी सन् ९८१ में सम्पन्न हुआ था। इसका अतिशय देश-दुनिया में व्याप्त है।
महोत्सव से समाज सीख लें :
हर १२ वर्ष के बाद महामस्तकाभिषेक की परम्परा का निर्वाह आस्था, श्रद्धा-भक्ति के साथ होता है। लाखों-लाख मानवों की महा-मस्तकाभिषेक में साक्षी होने से देश के समक्ष यह संकेत जाता है कि हमारा समाज अंतर्मन से एक है। हमारी यह एकता समाज के हितों के लिए आंतरिक रूप से मतभेद के स्थान पर मनभेद हैं, की जगह परस्पर निकटता इस राष्ट्रीय महोत्सव से उत्पन्न हो जाए, तो हमारी सबसे बड़ी तीर्थक्षेत्रों के लिए उपस्थित की गई समस्या से मुक्ति मिलने का रास्ता निकल सकता है। जब सैकड़ों की संख्या में हमारे संतगण महोत्सव में देश के कोने-कोने से विहार करके महोत्सव के लिए एक साथ एकत्र हो सकते हैं, तो हमारे को एक नेतृत्व देने के शुद्ध अंत:करण से मिल बैठ कर समाज हित में सामुहिक रूप से ठोस क़दम तो ऊठा ही सकते हैं।
१३२ साल पूर्व का ऐतिहासिक यात्रा वृतांत:
वीर संवत १९४० की बात है। बम्बई के धर्मात्मा गुजराती दिगम्बर जैन धनाढ़्य सेठ सौभाशाह मेघराज ने एक दिन मंदिर में जैनबिद्री और मूलबिद्री यात्रा की भावना व्यक्त करते हुए कहा कि जिन भाइयों की इच्छा हो साथ चलें। बम्बई के ही दानवीर माणिकचन्द्र ज़वेरी के साथ कुल १२५ धर्मालु तुरन्त तैयार हो हो गए। परोपकारी माणिकचन्द्र आराम पहुँचाकर ख़ुश होते थे। रास्ते में सबके टिकट, सामान का प्रबंध, ठहरने के स्थान की तलाश, हिसाब, यात्रा स्थलों पर पूछताछ सांब कुछ काम माणिकचन्द्र के ज़िम्मे था।
‘जैनबोधक’ अंक ४, १ दिसंबर सन १८८५ में सम्पादक सेठ हीराचंद ने यात्रा का विवरण में लिखा: “बेलगोला ग्राम में ८ दि. जैनमंदिर हैं जिनमें पट्टाचार्य का मंदिर दुरुस्त है शेष नहीं। मंदिरों में घास बढ़ गई है, मण्डप में पक्षियों के घर हैं जिससे दुर्गन्ध आती है। यहाँ दो पहाड़ एक दूसरे के सम्मुख हैं, एक बड़ा जिसको धोडपेटा दूसरा छोटा जिसको चिकपेटा कहते हैं। बड़ डे पर आठ व छोटे पर १४ दि. जैन मंदिर है। व्यवस्था पट्टाचार्य के आधीन है। कई मंदिरों के दरवाज़े नहीं है जिससे पशु-पक्षी उपसर्ग करते हैं।”
आगे सेठ हीराचंद नेमचंद लिखते हैं कि-“हमारे साथवालों ने १००) व बेलगुलगांववालों ने २००) इस प्रकार ३००) इसकी दुरुस्ती के लिए ब्रह्मसूरी शास्त्री (जो एक मात्र था जो प्राचीन ताडपत्रों पर अंकित धवलाओं को पढ़ सके थे ) को दिए मंदिरों में दरवाज़े लगाने को भी रुपये पट्टाचार्य को दिए हैं।” …”पट्टाचार्यजी ने सेठजी को हिंदी भाषा में पत्र भेजा उसकी नक़ल ‘जैनबोधक’ में है। इस से यह मालुम होता है कि-“कनड़ी देश में भी हिंदी लिखने व पढ़ने का रिवाज है जिससे भारत की यदि कोई भाषा व लिपि राष्ट्रीय हो सक्ति है तो यह हिन्दी भाषा ही है।
“गोमट्टस्वामी का बड़ा पहाड़ एक ही पत्थर का है ऊपर चढ़ने पर १ बड़ा दरवाज़ा है उसके भीतर जाते ही एक दम खुली,निर्मल, शांतस्वरूप, बहुत विस्तीर्ण, मनोहर बाहुबलि स्वामी की नग्न मूर्ति नज़र आती है। मूर्ति रे दर्शन से अंत:करण में एक प्रकार का आश्चर्य युक्त आनंद होता है। १९ हाथ चौड़ी और ४० हाथ ऊँची ऐसी उत्कृष्ट, ध्यानारूढ़, तेजस्वरूप मूर्ति की तरफ़ रात-दिन नेत्र लगा के बैठे तौभी तृप्ति नहीं हो सकती। बाहुबलिस्वामी प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव के पुत्र और भरत के भाई थे, इन्होंने दीर्घकाल तरश्चरण किया था जिससे चरण में वल्मीक लगे हैं उनमें से सर्प निकल के पाँव से खेल रहे हैं। शरीर के ऊपर बेल चढ़ी है ऐसा हूबहुव भाव पत्थर में मनोहर खुदा हुआ देखने में आता है।”
” ऐसे रमणीक अतिशय क्षेत्र के दर्शन प्राप्त कर सेठ माणिकचन्द के संघ को बहुत ही आनंद प्राप्त हुआ। बड़े पर्वत पर चढ़ते हुए सेठ जी ने देखा कि वृद्ध पुरुष व स्त्रियों को बहुत ह कष्ट हो रहा है, पत्थर चिकना ढालू है बारबार पैर फिसलता है। सेठ जी का शरीर भी छोटा व भारी था। इनको भी पर्वत पर चढ़ते हुए बहुत कष्ट हुआ। यह चढ़ते-चढ़ते विचारने लगे कि यदि इस पर्वत पर सीढ़ियाँ बन जावें तो सदा के लिए यात्रियों का कष्ट दूर हो जावे। अब तक लाखों-हज़ारों यात्री हो गए होंगे किसी क दिल में यह भाव पैदा नहीं हुआ। …आप ऊपर गए, संघ सहित परमानंददायक श्री बाहुबलि स्वामी के दर्शन कर के अपने जन्म को कृतार्थ मानते हुए। भाई पानाचन्द भी बहुत ही प्रसन्न हुए। सर्व ने बड़ी भक्ति से चरणों का प्रक्षाल किया फिर अष्ट द्रव्य से ख़ूब भाव लगाकर पूजन कर के महान पुण्य उपार्जन किया।
दर्शन करते-करते किसी का भी मन नहीं भरा।” “सेठ माणिकचन्द ने अपने भाई से सलाह कर अपने संघ को एकत्रित कर निश्चय किया कि बड़े पहाड़ पर २००० सीढ़ियाँ बना देनी चाहिए। ५०००) से अधिक की एक पट्टी की जिसमें आपने १०००) की रक़म भरी। रुपया एकत्र कर पट्टाचार्य जी के सुपुर्द किया कि इससे सीढ़ियाँ बनवा दी जावें। यह काम सेठ माणिकचंद ने इतने महत्व का किया कि आज तक इन सीढ़ियों के द्वारा यात्रियों को आराम पहुंच रहा है व आगामी पहुँचेगा। ये वही माणिकचन्द है, जो भारतवर्षीय दिगम्बर जैव तीर्थक्षेत्र कमेटी के प्रथम प्रमुख पदाधिकारी रहे हैं। इन्होंने तीर्थों के जिर्णोंद्धार और रक्षा के लिए जीवन के अंतिम समय तक जितना पुरुषार्थ किया है, वैसा और उतना आज तक कोई पदाधिकारी नहीं कर पाया है।
भट्टारक जी से एक अनुपलब्ध उम्मीद:
न जाने कितना समय बीत चुका है। हमें इतना तो ज्ञात है कि आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव और उनके पुत्र, आदि चक्रवर्ती भरत के भ्राता, प्रथम कामदेव अर्थात् दोनों का मुक्ति स्थल कैलाश पर्वत पर है। परंतु मुक्ति स्थल का सही-सही स्थान अब तक अज्ञात है। हमारे युग में अंतरिक्ष से भूमि पर स्थित छोटी-छोटी वस्तु को देखा जाना संभव हो गया है। इसका प्रमुख केन्द्र इसरो, बैंगलुर में है। अंतरिक्ष अनुसंधान केन्द्र से दोनों के चरण-स्थलों का पता लगाने की योजनाबद्ध पहल की जाना चाहिए। उचित को यह होगा कि श्रवणबेलगोल के कर्मठ महामना स्वाति श्री भट्टारक चारुकीर्ति जी जो सक्षम हैं, समर्थ हैं। उनकी क्षमता ताका लाभ दोनों अज्ञात पावन मुक्ति स्थलों का पता लगाकर, समाज को वंदना का अनउपलब्ध मार्ग उपलब्ध करा सकते हैं।