श्रीमती सुशीला पाटनी
आर.के. हाऊस,
मदनगंज- किशनगढ़ (राज.)
(संघ परिचय)
दोहा
शिष्यों के शुभ नाम से, गुरूवर का गुण गान।
सुनो सुनाते हम तुम्हें, बनने को गुणवान
विद्यासागर संघ का, परिचयमय यह काव्य।
भक्तों के हित काज ही, बना सु रूचिकर श्राव्य।।1।।
चौपाई
समय सार के गुरू हैं सागर। योग-सिन्धु के तत्व उजागर।
सभी नियम के भी सागर हैं। विद्यासागर संत अमर हैं।।
महा क्षमा के गुरू सागर हैं। त्रयों गुप्ति के रत्नाकर हैं।
परम सुधासागर हैं, गुरूवर। विद्यासागर ज्ञान के सागर।।
समता के भी सागर गुरूवर। निज स्वभाव को करें उजागर।
समाधि के सम्राट बने हैं। विद्यासागर गुणी घने हैं।।
गुरू तो इतने अधिक सरल हैं। मानों सागर जैसा दिल है।
इसीलिए गुरू हैं जगनामी। विद्यासागर तुम्हें नमामी।।
दोहा
जिनके दर्शन से मिले, सारे तीरथ धाम।
चलते फिरते तीर्थ का, विद्यासागर नाम।।2।।
चौपाई
प्रमाण गुण के गुरू सागर हैं। आर्जव गुण के रत्नाकर हैं।
गुरू मार्दव के हैं भण्डारी। विद्यासागर जग हितकारी।।
पवित्र में क्षीरोदधि पानी। उत्तम सागर भर सुख दानी।
ऐसे चिन्मय चिन्तक गुरूवर। विद्यासागर सब के गुरूवर।।
भवाब्धि में भी, गुरू पावन हैं। सागर सम गुरू का सुख धन है।
इसीलिए ऐसे गुरू की जय। बोलो विद्यासागर की जय।।
दोहा
प्रमाण खुद सुख सिन्धु है, इसका है नहीं अंत।
ऐसा सबको कह रहे, विद्यासागर संत।।
प्रमाण से सुख सिन्धु तक, से आठों मुनिराज।
सोनागिरी में बने मुनि, विद्या गुरू के साज।।3।।
चौपाई
दधि सम अपूर्व गुरू का प्रण है। प्रशांत सागर सम गुरू मन है।
हमको गुरू निर्वेग बनाते। विद्यासागर अत: सुहाते।।
गुणाबिध होकर भी विनीत है। निर्णय दधि-सम सदा अटल है।
बुद्धि जनों में अति प्रबुद्ध हैं। विद्यासागर जग प्रसिद्ध है।।
वचन सिन्धु देते प्रवचन में। पुण्य सिन्धु भरते जीवन में।
जो भी गुरू के पाय पडे़ हैं। विद्यासागर संत बने हैं।।
आत्मानुभव का प्रसाद गुरूवर। देते हैं सबको सागर भर।
इसीलिए गुरू विद्यासागर। इस युग में हैं, मानो जिनवर।।
दोहा
सन संतानवें में बना, यह दस मुनि का संघ।
सिद्धोदय में हो गया, उत्तम कार्य अभंग।।4।।
चौपाई
भयभीतों को अभय सिन्धु गुरू। अक्षय पद का दान करे गुरू।
क्षीरोदधि सम प्रशस्त तन मन। विद्यासागर गुरू को वंदन।।
छधिसम पुराण के सागर हैं। विद्यासागर गुण आगर हैं।।
प्रणम्य हैं गुरू सुर नर जन से। भवाब्धि में गुरू प्रभात जैसे।
सुगुरू चंद्र लख बढे़ सुखोदधि। विद्यासागर सु पुण्य के निधि।।
दोहा
सन अठानवें में बना, ये नव मुनि का संघ।
मुक्तागिरि के क्षेत्र से, चढ़ा संघ में रंग।।5।।
चौपाई
वृषभ देव सम गुण समुद्र है। अजित नाथ सम जित इंद्रिय है।
गुरू सम कोई मुनि संभव ना। विद्यासागर धर्म का गहना।।
करते है अभिनंदन गुरू का। सागर हैं गुरू-श्रेष्ठ सुमति का।
पाद गुरू के सागर सम। विद्यासागर के शरणा हम।।
गुण दधि को गुरू सुपार्श्व रखते। सदा चंदप्रभ सम तम हरते।
पुष्पदंत भगवंत समाना। विद्यासागर गुरू गुणवाना।।
गुरू का मन तो जिनवर जैसा। देते सुख श्रेयांस हमेशा।
वासुपूज्य सम शीलोदधि हैं। विद्यासागर महा सुधी हैं।।
क्षीरोदधि सम विमल हृदय हैं। अनंत नभ सग असीम मन हैं।
जैन धर्म के गुरू नायक हैं। विद्यासागर भव तारक हैं।।
परम शांति के गुरू सागर हैं। कुंथु आदि के भी रक्षक हैं।
अर जिन जैसे हैं गुण आगर। गुरूओं के गुरू विद्यासागर।।
सुशीलादि में मलिल जिनेशा। मुनि सुव्रत को पालें हमेशा।
सागर जैसी गुरू में नमि है। विद्यासागर महा यमी हैं।।
ब्रह्मचर्य में नेमि जिनेश्वर। पार्श्वनाथ सम धृति के सागर।
मुनियों के मुनि विद्यासागर। ज्ञान के सागर विद्यासागर।।
दोहा
सन निन्यानवें में बने, ये मुनिवर तेईस।
सिद्धोदय के क्षेत्र में, विद्या गुरू के शिष्य।।
मुनियों के शुभ नाम में, गुरूवर का गुणगान।
सुना दिया हमने तुम्हें, करने निज कल्याण।।
अब सुन लो तुम आर्यिका ओं, के सब शुभ नाम।
इन नामों से भी भरा, गुरूवर का गुण धाम।।6।।
चौपाई
गुरूवर की मति गुरू आज्ञा से। हुई श्रेष्ठ ही दृढ़ मति सबसे।
मृदु मन के गुरू है भण्डारी। विद्यासागर जग हितकारी।।
तन मन से अति ऋजु हैं गुरूवर। तपोरक्त ही रहते हर पल।
सत्य धर्म के उदघोषक हैं। विद्यासागर मन रोचक हैं।
गुण से गुरू की मति मंडित है। जिन मत के गुरूवर पंडित हैं।
निर्णय में गुरू मती अटल है। विद्यासागर तुम्हें नमन है।।
गुरूवर की तो उज्ज्वल मति है। पावन पथ पर गुरू की गति है।
इसीलिए गुरू है जग नामी। विद्यासागर तुम्हें नमामी।।
दोहा
जो निज गुरू के गुरू बने, अरू संतों के संत।
विद्यासागर मम गुरो, रहे सदा जयवंत।।7।।
चौपाई
प्रशांत रहती गुरूवर की मति। और पूर्ण व्रत के हैं गुरू यति।
यत्न करे गुरू अनंतमति को। वंदन विद्यासागर जी को।।
गुरूवर की मति महा विमल है। और शुभ्र ही गुरू का दिल है।
महा कुशल भी गुरू की मति है। विद्यासागर महा यति है।।
मति निर्मल ही है गुरूवर की। साधु जनों को शरणा गुरू की।
शुक्ल भाव से शोभे गुरूवर। विद्यासागर गुण के आगर।।
महा अनुत्तर गुरू की मति है। अनर्घ्य पद के दायक यति है।
करे साधना अतिशय कारी। विद्यासागर सब सुखकारी।।
निज अनुभव कारी। निज में नित आनंद रहे गुरू।।
निज अमंद अरू अभेद गुरू की। जय बोलो विद्यासागर की।।
दोहा
विद्यासागर संत का, संघ बड़ा आदर्श।
इनके दर्शन मात्र से, होता अपार हर्ष।।8।।
चौपाई
गुरू की मति सिद्धांत रूप है। सु न्याय में अकलंक देव हैं।
यातें गुरू निकलंक बने हैं। विद्यासागर नमन तुम्हें है।।
आगम अनुरूप सु चले चलाते। मति बढ़ने स्वाध्याय कराते।
जिन, गुरू, श्रुत प्रति महा नम्र हैं। विद्यासागर सुगुण खान हैं।।
सदा मधुर ही वचन बोलते। हरदम प्रसन्न मति से रहते।
प्रशम भाव को मति में धारें। विद्यासागर प्राण हमारे।।
अधिगम देकर गम को हरते। और मुदित सबकी मति करते।
रहे सहज ही मति गुरूवर की। जय गुरूवर विद्यासागर की।।
अनुगम गौतम का करते हैं। मान मंद अरू मति अमंद हैं।
अभेद मति से ध्याते चेतन। विद्यासागर शांति निकेतन।।
ध्याते नित एकत्व तत्व को। पाने मति कैवल्य सत्व को।
संवेगा निर्वेग युक्त हैं। विद्यासागर पाप मुक्त हैं।।
दोहा
जिन-मत के सिद्धांत को, जानत हैं गुरूदेव।
मति में गुरू निर्वेग ही, रखते भाव सदैव।।
नगर जबलपुर में हुई, ये दीक्षा पच्चीस।
बनी आर्यिका ये सभी, गुरू से पा आशीष।।9।।
चौपाई
गुरूवर की मति सूत्र रूप है। कहे सुनय से निज स्वरूप है।
सकल तत्व को मति से जाने। विद्यासागर बड़े सुहाने।।
सविनय से सब ग्रंथ बांचते। सतर्क मति से कर्म काटते।
मति से ही सब संयम पाले। विद्यासागर जग रखवाले।।
अर्थ समय का मति से कहते। शोध निजातम का नित करते।
शाश्वत सुख की रखे लगन है। विद्यासागर तुम्हें नमन है।।
गुरूवर की अति सरल मती है। शील व्रतों में महा यति है।
मति से भी नित सुशील पाले। विद्यासागर गुरू हैं प्यारे।।
चर्या में गुरू अडिग शैल है। अरू भावों से शीतल जल है।
छल बिन गुरू की श्वेत मती है। विद्यासागर महा यती है।।
मति से गुरू श्रुत सार बताते। शिव सुख का सत्यार्थ जानते।
सदा सिद्ध को मति से ध्याते। विद्यासागर हमें सुहाते।।
सुसिद्ध पद को मति में रखते। विशुद्ध मति से चर्या करते।
करे स्वप्न साकार सभी के। विद्यासागर ईश सभी के।।
सदा सौम्य ही मति गुरूवर की। और सूक्ष्म है मति गुरूवर की।।
परम शांत मति के धारक हैं। विद्यासागर हित कारक हैं।।
गुरूवर सुशांत मति के धारी। और सदय के हैं भण्डारी।
करें समुन्नत मति शिष्यों की। जय जय गुरू विद्यासागर की।।
शास्त्र रूप ही गुरू नित चलते। यतियों की मति सुधार करते।
इसीलिये गुरू हैं जग नामी। विद्यासागर तुम्हें नमामी।।
दोहा
शिष्यों को जिन सत्र में, बांधे हैं गुरूदेव।
जिससे सुधार धर्म का होता रहे सदैव।।
सिद्धोदय में दिये गुरू, ये दीक्षा उनतीस।
बना आर्यिका संघ यह, पा गुरू से आशीष।।10।।
चौपाई
कषाय सब उपषांत हुई हैं। गुरू की मति तो अकंप ही हैं।
यातें अमूल्य गुरू की मति है। विद्यासागर महा यती हैं।।
मति गुरू की आराध्य हमें हैं। कारण गुरू ऒँकार भजे हैं।
गुरू सबकी मति उन्नत करते। विद्यासागर सब दुख हरते।।
अचिन्त्य भी है मति गुरूवर की। अलोल भी है मति गुरूवर की।
गुरूवर की अनमोल मती है। विद्यासागर महा यती है।।
गुरू हमरी मति उचित बनाओ। अरू मति में उद्योत जलाओ।
गुरू आज्ञा मति से ही पालूँ। विद्यासागर गुरू गुण गाऊँ।
मेरी मति गुरू अचल बनाना। अवगम देकर मती बढ़ाना।
मेरा वंदन तुम स्वीकारो। विद्यासागर हमको तारों।
दोहा
सिद्धोदय चौमास में, दीक्षा चौदह लेय।
बनी आर्यिका से सभी, रखकर गुरू को ध्येय।।
विद्यासागर संघ सा, इतना विशाल संघ।
वर्तमान में है नहीं, और न कोई संघ।।
बाल ब्रह्मचारी रहा, गुरू का पूरा संघ।
इसे देखकर के सभी, जन हो जाते दंग।
विद्यासागर की अमर, वाणी काव्य स्वरूप।
उत्तम सागर ने लिखा, गुरू गुण के अनुरूप।।11।।