ऊंची दुकान और फीका पकवान! -आचार्यश्री
चन्द्रगिरि (डोंगरगढ़) में विराजमान संत शिरोमणि 108 आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने प्रात:कालीन प्रवचन में कहा कि जब तीर्थंकर भगवान का समवशरण लगता है तो उसमें काफी भीड़ होती है और जगह की कमी कभी नहीं पड़ती है। बहरे के कान ठीक हो जाते हैं, उसे सब सुनाई देने लगता है। अंधे की आंखें ठीक हो जाती हैं और उसे सब दिखाई देने लग जाता है, लंगड़े के पैर ठीक हो जाते हैं और वह चलने लग जाता है। वो भी बिना किसी ऑपरेशन, सर्जरी या बिना किसी नकली पैरों के सब कुछ अपने आप हो जाता है। मंदबुद्धि का दिमाग ठीक हो जाता है।
एक बार एक गांव में 25वें तीर्थंकर कहकर समवशरण लगाया गया। उसमें काफी भीड़ भी इकट्ठी हो गई। वहां बहरे, अंधे, लूले-लंगड़े, मंदबुद्धि लोग भी आए, परंतु उनका वहां जाकर भी कुछ नहीं हुआ। वे जब वापस आए तो अंधा, अंधा ही था, बहरा, बहरा ही था, लंगड़ा, लंगड़ा ही था और मंदबुद्धि, मंदबुद्धि ही था। किसी में कोई परिवर्तन नहीं आया तो लोग समझ गए कि यह समवशरण वीतरागी का नहीं है। यह सब एक वीतरागी के समवशरण में ही संभव हो सकता है और वीतरागी समवशरण में आने वालों का पूर्ण श्रद्धा से सम्यक दर्शन का होना भी अनिवार्य है तभी कुछ परिवर्तन होना संभव है। सम्यक दर्शन के भी 8 भेद बताए जाते हैं जिसका शास्त्रों में उल्लेख पढ़ने को मिलता है।
आचार्यश्री ने कहा कि कपड़े की दुकान वाले बुरा मत मानना। एक बार एक कपड़े की दुकान में एक ग्राहक आता है और कपड़े देखता है। देखते ही देखते उसके सामने पूरे का पूरा कपड़ों का ढेर लग जाता है। दुकान मालिक उससे पूछता है कि आपको किस वैरायटी का कपड़ा चाहिए? तो ग्राहक कहता है कि आप अपनी दुकान का सारा माल दिखाइए और मुझे जो पसंद आएगा, उसे मैं ले लूंगा। कपड़े की दुकान वाले का पसीना छूट जाता है और उसने ग्राहक को चाय भी पिलाई (लोभ दिया) फिर भी ग्राहक संतुष्ट नहीं हुआ।
आचार्यश्री ने कहा कि दुकान कैसी भी हो, क्वालिटी अच्छी हो तो लोग ठेले में भी झूम जाते हैं। वो कहावत है न कि ‘ऊंची दुकान और फीका पकवान’। दुकान बड़ी होने से कुछ नहीं होता, माल अच्छा हो तो दुकान में भीड़ लगी रहती है। इसी प्रकार हमारे भाव भी सम्यक दर्शन के प्रति बने रहना चाहिए और इसमें कभी कोई शंका उत्पन्न नहीं होना चाहिए तभी इसकी सार्थकता है।
यह जानकारी चन्द्रगिरि डोंगरगढ़ से निशांत जैन (निशु) ने दी है।
आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज
आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज