मुनि श्री 108 अक्षय सागर जी महाराज द्वारा रचित एवं मुनि श्री के स्वर में समाधिभक्ति
तेरी छत्र-छाया भगवन मेरे सिर पर हो,
मेरा अंतिम मरण समाधि तेरे दर पर हो।
जिनवाणी रसपान करु मैं, जिनवर को ध्याऊं।
आर्यजनों की संगति पाऊं, व्रत संयम चाहूं।
गुणीजनों के सदगुण गाऊं, जिनवर यह वर दो।
मेरा अंतिम मरण समाधि तेरे दर पर हो।
पर निंदा न मुंह से निकले, मधुर वचन बोलुं।
ह्रदय तराजू पर हितकारी, संभाषण तोलु।
आत्म-तत्व की रहे भावना, भाव विमल भर दो,
मेरा अंतिम मरण समाधि तेरे दर पर हो।
जिनशासन में प्रीति बढ़ाऊं, मिथ्या पथ छोड़ू,
निष्कलंक चैतन्य भावना, जिनमत से जोड़ू।
जन्म-जन्म में जैन धर्म मिले, यह कृपा कर दो।
मेरा अंतिम मरण समाधि, तेरे दर पर हो।
मरण समय गुरु पाद मूल हो, संत समूह भर रहे।
जिनालयो में जिनवाणी की गंगा नित्य बहे।
भव-भव में सन्यास मरण हो, नाथ हाथ धर दो,
मेरा अंतिम मरण समाधि तेरे दर पर हो।
बाल्यकाल से अब तक मैंने, जो सेवा की हो,
देना चाहो प्रभु आप तो, बस इतना फल दो।
श्वांस-श्वांस अंतिम श्वांसों में, णमोकार भर दो।
मेरा अंतिम मरण समाधि तेरे दर पर हो।
विषय कषायों को मैं त्यागूँ, तजु परिग्रह को,
मोक्षमार्ग पर बढ़ता जाऊं, नाथ अनुग्रह हो
पर निंदा से मुझे निकालो, सिद्धालय भर दो,
मेरा अंतिम मरण समाधि,तेरे दर पर हो।
भद्रबाहु सम गुरु हमारे, हमें भद्रता दो,
रत्नत्रय की संयम सुचिता, ह्रदय सरलता दो।
चन्द्रगुप्त सी गुरुसेवा का, पाठ ह्रदय भर दो,
मेरा अंतिम मरण समाधि तेरे दर पर हो।
अशुभ न सोचूं, अशुभ न चाहूं, अशुभ नहीं देखूं,
अशुभ सुनू न, अशुभ कहूं न, अशुभ नहीं लेखूं।
शुभ चर्या हो, शुभ क्रिया हो, शुद्ध भाव भर दो,
मेरा अंतिम मरण समाधि, तेरे दर पर हो।
तेरे चरण कमल पर जिनवर, रहे ह्रदय मेरे,
मेरा ह्रदय रहे सदा ही, चरणों में तेरे।
पण्डित-पण्डित मरण हो मेरा, ऐसा अवसर दो,
मेरा अंतिम मरण समाधि तेरे दर पर हो।
दु:ख नाश हो, कर्म नाश हो, बोधि लाभ भर दो,
जिन गुण से प्रभु आप भरे हो, वह मुझ में भर दो।
यही प्रार्थना, यही भावना, पूर्ण आप कर दो,
मेरा अंतिम मरण समाधि तेरे दर पर हो।
तेरी छत्रछाया भगवन मेरे सिर पर हो,
मेरा अंतिम मरण समाधि तेरे दर पर हो।
तेरी छत्रछाया गुरुवर, मेरे सिर पर हो,
मेरा अंतिम मरण समाधि, तेरे दर पर हो