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एक अप्रतिम वीतरागीः आत्म कल्याण से जन कल्याण

-शोभना जैन

बरसों पहलें की एक घटना एक स्मृति  नहीं बल्कि ऑखों में बस सी गई हैं… मध्यप्रदेश के सागर नगर के निकट एक उनींदा सा कस्बा  रहली , अचानक गुलजार सा हो उठा  कस्बा , और चमकदार सी सुबह में तंग गलियो मे एक दूसरे से जुड़े मकानो से जहा तहा रास्ता निकाल झांकती धूप भी मानों मंद मंद सी मुस्कराती.मैं वहा सपरिवार  घोर तपस्वी, दार्शनिक, विद्वान और  समाज सुधारक जैन मुनि आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के दर्शन करने गई थी. सुबह दर्शन कियें और दोपहर फिर से दर्शन लाभ और प्रवचन सुनने का कार्यक्रम था. दोपहर जब वहा पहुंचें तो माहौल में बैचेनी, अनिश्चितता सी थी.

 

पता लगा “वीतरागी अनियत विहारी’ ने अचानक ससंघ विहार कर  अगले पड़ाव पर चल देने का फैसला किया हैं, और कुछ ही देर में  गुलजार हुआ वह कस्बा उदास सा हो गया. कुछ ही क्षणों में उस छोटे से कस्बें में  विस्मयकारी द्रश्य देखने को मिला.तपस्वी संत अगले पड़ाव पर जा रहे है, उनके संघ के 40 मुनिजन एक के बाद उनके पीछे चल रहे  थे और पीछे पीछे उदास शृद्धालु उन के अगले पड़ाव तक विदा देने के लिये चल रहे थे. ये थे वीतरागी जैन मुनि आचार्य श्री विद्यासागर जी. एक तरफ  जहा न/न केवल आस पास के लोग बल्कि भारत और विदेशो से उनके भक्त उनके दर्शन के लिये यहा पहुंच रहे थे और  दूसरी तरफ वीतरागी निर्विकार भाव से  अचानक अगले पड़ाव की और चल पड़े थे.ना कोई राग, कोई बंधन, कोई जुड़ाव नही.घोर तपस्या और अनवरत साधना की राह.

उन मुनि गण के नंगे पैरो से उड़ती धूल, प्रवचन स्थल से उतरते शामियाने, उठाई जा रही दरियॉ, श्रधालुओ की उदास ऑखे,अचानक मेले से सूनेपन मे पसरता कस्बा और इन सब से बेखबर आगे बढते जा रहा था वीतरागी और उनका संघ.

ऐसे हैं परम विद्वान ,चिंतक,घोर तपस्वी ्ये जैन मुनि जो  पिछले ५३ बरसों से घोर तप मे रत है.वे  समाज  को कोई चमत्कारिक मंत्र नही अपितु दुखी के आँसू पोछने,आदर्श जीवन जी्ने, परोपकार, सामाजिक सौहार्द, प्राणी मात्र का कल्य़ाण. अपरिग्रह  व  स्त्री शिक्षा, स्त्री अधिकार सम्पन्नता  की “मंत्र दीक्षा” देते  है.अठारह वर्ष की आयु में ब्रहचर्य की दीक्षा लेने वाले घोर तपस्वी संत, आचार्य विद्यासागर दिगम्बर जैन  संत पंरपरा के त्याग, तपस्या  मुनि पंरपरा का  विलक्षण व आदर्श उदाहरण है. आचार्य श्री ने पिछले 4८ बरसो से मीठे व नमक, पिछले ४० वर्ष से  रस, फल का त्याग किया हुआ है, उन्होने 18 वर्ष से रात्रि विश्राम के समय चटाई तक का भी त्याग किया हुआ है,  22 वर्ष से  सब्जियों व दिन में सोने का भी त्याग कर रखा है।

26 वर्ष से मिर्च मसालों का त्याग किए  हुए है। आहार में सिर्फ चुने अनाज , दाले व जल ही लेते है और जैन आगम की पंरपरा का पालन करते हुए दिन में केवल  एक बार  कठोर नियमो  का पालन खड़्गासन मुद्रा में हाथ की अंजुलि में भोजन  लेते हैं भोजन में  किसी भी प्रकार के सूखे फ़ल और मेवा और किसी प्रकार के व्यंजनों का सेवन भी नहीं करते, बमुश्किल तीन घंटे  की नींद लेते है और इसी तप साधना से अपनी इंद्रिय शक्ति को नियंत्रित कर  केवल एक करवट सोते है, मल मूत्र विसर्जन भी अपने नियम के निर्धारित समयानुसार  ही करते है. 

दिगम्बर जैन संत पंरपरा के अनुरूप परम तपस्वी विद्यासागरजी  वाहन का उपयोग नही  करते हैं, न शरीर पर कुछ धारण करते हैं. पूर्णतः दिगम्बर नग्न अवस्था में रहते हैं  भीषण सर्दियो व बर्फ से ढके इलाको मे भी दिगम्बर जैन पंरपरा के अनुरूप  जैन साधु  नग्न ही रहते है और सोने के लिये लकडी का तख्त ही इस्तेमाल करते है, पैदल ही विहार करते हुए देश भर मे हज़ारो किलोमीटेर की यात्रा कर चुके हैं, वाहन दिगम्बर जैन पंरपरा के साधुओ  साध्वियो लिये  वर्जित है।

देश विदेश से आम और खास सभी इस तपस्वी से  सेवा, अर्जन केवल जरूरत के लिये, अपरिग्रह . जीव मात्र से दया चाहे वह वनस्पति हो या जीव, स्त्री शिक्षा ,अंहकार त्यागने, निस्वार्थ भावना से कमजोर की सेवा करने जैसी सामान्य सीख की ‘मंत्र दीक्षा ‘लेने आते है. एक श्रद्धालु के अनुसार ‘  इस तपस्वी संत की विशेषता यही है कि उनके पास श्रद्धालु  उनके घोर तप से प्रभावित हो कर आते हैं, किसी चमत्कारिक मंत्र के लिये नही. उन के अप्रतिम त्याग और तेज के चलते एक आदर्श जीवन की सीख की सकारात्मकता से खिंचे चले आते हैं.

‘आचार्य श्री विद्यासागर जी एक महान संत के साथ साथ एक कुशल कवि वक्ता एवं विचारक भी हैं , काव्य रूचि और साहित्यनुराग उन्हे विरासत मे  मिला है. कन्नड भाषी, गहन चिंतक यह संत प्रकांड विद्वान है जो प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, हिंदी, मराठी, बंगला और अंग्रेज़ी में  निरंतर लेखन कर रहे है। उनकी चर्चित कालजयी  कृति ‘मूकमाटी’ महाकाव्य है।

यह रूपक कथा काव्य अध्यात्म दर्शन व युग चे्तना का अद्भुत मिश्रण है दरअसल यह कृति शोषितो की उत्त्थान की प्रतीक है, किस तरह पैरों से कुचली जाने वाली माटी की मंदिर का शिखर बन जाती है अगर उसे तराशा जाये.  देश के 300 से अधिक साहित्यिकारों की लेखनी मूक माटी को रेखांकित कर चुकी है, लगभग 300  से अधिक साधु साध्वियो के आचार्य जी के संघ मे एम टेक, एम सी ए व उच्च शिक्षा प्राप्त मुनि गण है जो ्पूरी शिक्षा ग्रहण करने के बाद संसार को त्याग कर अपनी खोज और आत्म कल्याण की साधना मे रत है, ये सभी अपने इस जीवन को जीवन की पूर्णता मानते है.तिरेपन वर्ष पूर्व मात्र 22 वर्ष की आयु मे अपने गुरू आचार्य ज्ञानसागरजी से दीक्षा लेने वाले इस संत के जीवन की एक अप्रतिम घटना यह है कि उनके गुरू ने अपने जीवनकाल में आचार्य पद का अपने इस  शिष्य को सौप कर अपने इस शिष्य  से ही समाधिमरण सल्लेखना (जैन धर्मानुसार स्वेछामृत्युवरण) ली.

आचार्यश्री  की प्रेरणा से उनसे प्रभावित श्रद्धालु समाज कल्याण के अनेक कार्यक्रम चला रहे है, जिनमे स्त्री शिक्षा, पशु कल्याण, पर्यावरण रक्षा,अस्पताल,हथ करघा, स्त्री साक्षरता जैसे कितने ही कार्यक्रम  है. जेल में रहने वाले कैदियों को आदर्श जीवन  की और लाने के लियें इन  की प्रेरणा से उन के शिष्य प्रण्म्य सागर जी के सान्निध्य में अर्हम योग  साधना सिखाई जा रही ्हैं. नैतिक  मूल्यो पर आधारित बच्चियो की शिक्षा के लिये प्रतिभा स्थली एक अनूठा प्रयोग माना जाता है. मध्यप्रदेश के जबलपुर स्थित इस संंस्थान की सफलता के बाद इसकी एक शाखा अब प्रदेश के ड़ूंगरपुर मे भी खोली गयी है.

 यह तपस्वी संत वर्षा योग चातुर्मास के लिये  मध्यप्रदेश के इंदोर में विराजमान है. देश ्के शीर्ष नेतृत्व से ले कर समाज का सब से कमजोर व्यक्ति सभी उन के लिये समक्ष हैं.

उन के भक्त जनों का इस वीतरागी की अनन्य साधना और तपस्या के प्रति समर्पण का एक कभी नही भूलने वाला क्षण.. ऐसे ही एक बार जब वह पद प्रक्षालन के बाद  वह आगे बढ रहे थे तो एक श्रधालु ने भाग कर यह बुदबुदाते हुए जमीन पर उन के पैरों से गिरी पानी की कुछ बूंदे यह कहते हुए माथे पर लगा ली..धन्य हैं ऐसे साधना.. उस  भक्त की कोई याचना नही.. कोई मन्नत नहीं और न/ न ही किसी सिद्धी, मंत्र की याचना वो था सिर्फ तपस्वी की साधना के प्रति नत मस्तक. नमोस्तु !
अनियत वीतरागी.

साभारः पंजाब केसरी, लेखिकाः शोभना जैन प्रधान संपादिका, वीएनआई,समाचार सेवा

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