– डॉ. वेदप्रताप वैदिक
(वरिष्ठ पत्रकार)
17 जुलाई 2018 – आज दिगंबर जैन मुनिश्री विद्यासागरजी महाराज का 51वां दीक्षा-समारोह सारे देश में मनाया जा रहा है। किसी व्यक्ति का जैन-मुनि बनना अपने आप में अत्यंत कठिन तपस्या है और दिगंबर मुनि बनना उससे भी कठिन है। इतना ही नहीं, विद्यासागरजी जैसा मुनि बनना तो अत्यंत दुर्लभ है।
जैन-मुनियों से बचपन से ही मेरा संपर्क रहा है। आचार्य तुलसी महाप्रज्ञजी, महाश्रमणजी, विद्यानंदजी, आचार्य जयंतसेन सूरीश्वरजी आदि से विचार-विमर्श और सतसंग के मुझे कई अवसर मिले हैं लेकिन मेरी ऐसी धारणा है कि मुनि विद्यासागरजी मुझे सबसे अलग और दुर्लभ लगे। विद्यासागरजी मुझसे मिलना चाहते हैं, यह बात मुझे मेरे कई प्रतिष्ठित जैन-मित्रों ने कई शहरों से फोन पर कही। मुझे आश्चर्य हुआ। फिर कुछ मित्रों ने इंदौर और नागपुर से फोन किया कि वे पिछले तीन दिन से अपने उपदेशों में रोज आपका जिक्र कर रहे हैं।
आपकी 50 साल पुरानी किताब ‘अंग्रेजी हटाओः क्यों और कैसे?’ के तर्कों का समर्थन कर रहे हैं। मैंने मालूम किया तो पता चला कि वे कोरे साधु नहीं हैं। महापंडित हैं। कई भाषाओं के जानकार हैं। स्वयं कन्नड़भाषी हैं। अनेक ग्रंथों के रचनाकार हैं। कवि हैं, विद्वान हैं, लेखक हैं। पांच साल पहले नागपुर के पास रामटेक में वे विहार कर रहे थे। मैं नागपुर पहुंचा। पहले सरसंघचालक मोहन भागवतजी के साथ मध्य-रात्रि तक भोजन और संवाद चला। फिर सुबह-सुबह विद्यासागरजी से भेंट हुई। 15 मिनिट की भेंट लगभग 2 घंटे चली। उन्होंने अपनी चर्या स्थगित कर दी।
परिचय का यह शुभारंभ घनिष्टता में बदल गया। उन्होंने मेरी जन्म-तिथि पूछी और कहा कि आप मुझसे दो साल बड़े हैं। बड़े भाई हैं। यह रिश्ता अमर हो गया। फिर कई बार भेंट हुई और हमारे बीच सतत संवाद कायम है। उन्होंने मेरी दो पुस्तकों- ‘अंग्रेजी हटाओ’ और ‘मेरे सपनों का हिंदी विश्वविद्यालय’ की एक-एक लाख प्रतियां छपवा दीं। इस समय देश में भारतीय भाषाओं का सबसे बड़ा पक्षधर कोई संत है तो वे विद्यासागरजी ही हैं। उनका त्याग, उनकी तपस्या, उनकी विद्वता, उनकी सहृदयता, उनकी उदारता- सब कुछ अत्यंत अनुकरणीय है। वे सच्चे धर्मध्वजी हैं। वे करोड़ों लोगों को सदेह मोक्ष का मार्ग दिखा रहे हैं। वे सभी संप्रदायों के लोगों के लिए पूज्य हैं।
वे स्वस्थ रहें और शतायु हों, इसी शुभकामना के साथ मैं उन्हें विनयपूर्वक प्रणाम करता हूं।