Youtube - आचार्यश्री विद्यासागरजी के प्रवचन देखिए Youtube पर आचार्यश्री के वॉलपेपर Android पर दिगंबर जैन टेम्पल/धर्मशाला Android पर Apple Store - शाकाहारी रेस्टोरेंट आईफोन/आईपैड पर Apple Store - जैन टेम्पल आईफोन/आईपैड पर Apple Store - आचार्यश्री विद्यासागरजी के वॉलपेपर फ्री डाउनलोड करें देश और विदेश के शाकाहारी जैन रेस्तराँ एवं होटल की जानकारी के लिए www.bevegetarian.in विजिट करें

सांसारिक वैभव अस्थिर व अस्थायी होता है : आचार्यश्री

अमरकंटक (छत्तीसगढ़)। प्रसिद्ध दार्शनिक व तपस्वी जैन संत शिरोमणिश्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा है कि सांसारिक वैभव अस्थिर व अस्थायी होता है। यह एक पल में प्राप्त और अगले ही पल समाप्त हो सकता है। यही संसार की लीला है। इसलिए यह वैभव प्राप्त होने पर भी कभी संतोष का त्याग नहीं करें और न ही अहंकार को पास में फटकने दें।

आचार्यश्री ने बताया कि सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों ही लक्ष्यों पर ध्यान रखते हुए यह भी सदैव याद रखें कि लक्ष्य को प्राप्त करने का रास्ता कठिनाइयोंभरा है। यह याद रखने से तो कठिनाइयां भी कम हो जाती हैं।

आचार्यश्री यहां श्रद्धालुओं की विशाल सभा को संबोधित कर रहे थे। इससे पूर्व यहां ससंघ ने आशीर्वाद प्राप्त किया। पहुंचने पर श्रद्धालुओं ने उनका हार्दिक अभिनंदन करते हुए आशीर्वाद प्राप्त किया। इस अवसर पर अमरकंटक के शैल शिखर पर निर्माणाधीन विशाल भव्य जैन मंदिर के सम्मुख 1008 जिन प्रतिमायुक्त सहस्रकूट मान स्तंभ का शिलान्यास संत शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के ससंघ सान्निध्य में किया गया। मान स्तंभ का जिन भवन बहुमंजिला व कीर्ति स्तंभ की शैली में होगा। शिलान्यास समारोह में बिलासपुर के जाने-माने व्यवसायी प्रमोद सिंघई व विनोद सिंघई ने परिवार सहित समारोह को सफल बनाने के लिए विशेष योगदान दिया।

आचार्यश्री विद्यासागरजी ने कहा कि देवों के पास असीम वैभव होता है, मगर मन पर अंकुश नहीं होता है। सुख तो भोगते हैं किंतु संतोष नहीं होता। संतोष धारण की प्रवृत्ति मानव में होती है, देवों में नहीं। धार्मिक कार्यों में व्यय से मानव संतोष की अनुभूति करता है। मन पर अंकुश लगा व संयम धारण कर संतोष व सुख पा लेता है। हाथी की दिशा ठीक रखने के लिए महावत हाथी के सिर पर अंकुश का प्रयोग करता है। किसी की आवश्यकता की पूर्ति में सहायता करना अनुग्रह है, अनुग्रह से संतोष की अनुभूति होती है।

चलने व गतिशीलता को प्रगति का सूचक बताते हुए आचार्यश्री ने कहा कि लगातार चलने वाले विरले ही होते हैं। चलने का अर्थ गतिशील होना है। आपने कुछ हास्य-भावों के साथ कहा कि हमारे गमन की सूचना पाकर कुछ लोग चलने लगते हैं कि महाराज हमारे गांव या नगर आ रहे हैं, साथ में हर्षोल्लास से चलते हैं किंतु कितनी दूर और कब तक? रास्ते में किलोमीटर की गणना करते रहते हैं कि कितनी दूरी शेष है?

उन्होंने कहा कि भव्य आत्माओं ने चलते-चलते परम पद पा लिया। पद-पद चले, परम पद पा गए। भव्य आत्माओं के ध्यान से टूट रहा साहस पुन: दृढ़ होकर बल बन जाता है। भक्त न हो, तो भक्ति नहीं हो सकती। भक्ति से भगवान को सरोकार नहीं, अपितु भक्ति का सरोकार भक्त से भक्त के लिए होता है।

आचार्यश्री ने कहा कि सहस्रकूट जिनालय का निर्माण विशेष पत्थरों से किया जा रहा है जिससे कि सैकड़ों वर्ष तक ऊपर चढ़ने का पथ प्रशस्त होता रहे। चातुर्मास में एक स्थान पर रुकना होता है लेकिन वह समय अभी दूर है। यह संकेत करते हुए आचार्यश्री विद्यासागरजी ने बच्चों में दान की प्रवृत्ति की सराहना करते हुए कहा कि बच्चों के संस्कार से कभी-कभी बड़ों को भी सीख लेना चाहिए। (साभार : वेदचंद जैन/वीएनआई)

 

 

 

प्रवचन वीडियो

कैलेंडर

january, 2025

No Events

X