चन्द्रगिरि (डोंगरगढ़) में विराजमान संत शिरोमणि 108 आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने मांगलिक उपदेश देते हुए एक दृष्टांत के माध्यम से बताया कि एक संघ में मुनि महाराज ने संलेखना के कुछ दिनों पहले यम संलेखना का नियम ले लिया था, ऐसे मुनि महाराज के दर्शन के लिए चक्रवर्ती तक आए थे।
मुनि महाराज के शरीर में कुछ भी ग्रहण करने की शक्ति नहीं बची थी। ऐसे परीक्षा के समय में उन्हें मन में विकल्प हो रहा था तो उन्होंने गुरु महाराज से कहा कि उन्हें मन में आहार लेने का विकल्प आ रहा है।
इस बात को सुनकर समस्त मुनि संघ चिंतित हो गए कि ऐसी परीक्षा की घड़ी में मुनि महाराज क्या कह रहे हैं? उन्हें जब आहार करने कहा गया तो उनके हाथों की अंजलि से जल मुंह तक भी नहीं आया और सारा जल बाहर ही गिर गया, इसके बाद ग्रास (रोटी) दिया गया तो मुंह में चबाने की भी ताकत नहीं थी।
गुरु महाराज ने मुनि महाराज को मन को संयमित करने को कहा कि मन की तरंगें मोक्ष मार्ग में बाधक हैं। मृत्यु निश्चित है इसलिए हमें हर पल हर श्वास में प्रभु का स्मरण करते हुए आगम अनुसार मोक्ष मार्ग में चारों कषायों को जीतकर मन को संयमित कर संलेखना व्रत को धारण करना चाहिए।
आचार्यश्री ने बताया कि उनके गुरु श्री ज्ञानसागरजी महाराज संलेखना के समय शरीर के जीर्ण-शीर्ण होने के बाद अंतिम समय में भी प्रत्येक श्वास में प्रभु का स्मरण करते हुए अपने शिष्यों को उपदेश देते रहे। आचार्यश्री ने प्रभु से प्रार्थना की कि ऐसे व्रतों का निर्वहन वे भी कर सकें और अंतिम श्वास तक अपने गुरु के जैसे प्रभु का स्मरण कर संलेखना धारण कर सकें।