गुरु पद पूजन |
गुरु गोविन्द से हैं बडे, कहते हैं सब धर्म। गुरु पूजा तुम नित करो, तज के सारे कर्म॥ |
पूजन का अवसर आया, वसु द्रव्य से थाल सजाया। संसार धूप है तपती, गुरु चरण है शीतल छाया॥ हे तपोमूर्ति, हे तपस्वी, हे संयम सूरी यशस्वी। हे संत शिरोमणि साधक, हे महाकवि, हे मनस्वी॥ मेरे उर मे आ विराजो, श्रद्धा से हमने बुलाया। |
॥स्थापना॥ |
नयन ही गंगा बन गये, अब क्या हम जल को मंगायें। इन बहते अश्रु से ही, गुरु चरणा तेरे धुलायें॥ अब जन्म जरा मिट जाये, इस जग से जी घबराया। |
॥जल॥ |
शीतल शीतल पगर्तालयाँ, शीतल ही मन की गलियाँ। शीतल है संघ तुम्हारा, बहे शीतल संयम धारा॥ शीतल हो तप्त ये अंतर, चन्दन है चरण चढाया। |
॥चन्दन॥ |
है, शरद चाँद से उजली, चर्या ये चारू न्यारी। शशि सम याते ये अक्षत, हम लायें हैं भर के थाली॥ तुम अक्षय सुख अभिलाशी, क्षण भंगुर सुख ठुकराया। |
॥अक्षत॥ |
तपा-तपा के तन को, तप से है पूज्य बनाया। तन से तनिक न मतलब, आतम ही तुमको भाया॥ हे आत्म निवासी गुरुवर, तुम अरिहंत की छाया। |
॥पुष्प॥ |
हो भूख जिसे चेतन की, षट रस व्यंजन कब भाते। रूखा-सूखा लेकर वो, शिव पथ पर बढते जाते॥ गुरु सदा तृप्त तुम रहते, हमें क्षुधा ने लिया रुलाया। |
॥नैवेद्य॥ |
जगमग जगमग ये चमके, है रोशनी आतम अन्दर। हम मिथ्यातम में भटके, हो तुम सिद्धों के अनुचर॥ निज दीप से दीप जला दो, मत करना हमें पराया। |
॥दीप॥ |
वसु कर्म खपाने हेतु ध्यान अग्नि को सुलगाया। हे शुद्धोपयोगी मुनिवर, मुक्ति का मार्ग दिखाया॥ तुम धन्य-धन्य हो ऋषिवर हमें अघ ने दिया सताया। |
॥धूप॥ |
फल पूजा का हम माँगें तुम उदार बनना गुरुवर। बस रखना सम्भाल हमको, जब तक ना पाऊँ शिवघर॥ गुरु शिष्य का नाता अमर है, तुमने ही तो बतलाया। |
॥फल॥ |
देवलोक की दौलत इस जमीं पे सारी मंगाए। हो तो भी अर्घ न पूरा, फिर क्या हम तुम्हें चढाए॥ अब हार के गुरुजी हमने, जीवन ही दिया चढाया। |
॥अर्घ॥ |
बन्धन पंचमकाल है वरना गुरु महान। पाकर केवलज्ञान को बन जाते भगवान॥ |
॥जयमाला॥ |
कंठ रुंधा नयना छलके हैं।
अधर कंपित नत पलके हैं॥ कैसे हो गुरु गान तुम्हारा। बहती हो जब अश्रु धारा॥ एक नाम है जग में छाया।
विद्यासागर सबको भाया॥ भू से नभ तक जोर से गूंजा। विद्यासागर सम न दूजा॥ नदियाँ सबको जल हैं देतीं।
नहीं क्षीर निज गायें पीती॥ बाँटे जग को फल ये तरुवर। ऐसे ही हैं मेरे गुरुवर॥ रहकर पंक में ऊपर रहता।
देखो कैसे कमल है खिलता॥ अलिप्त भाव से गुरु भी ऐसे। जग में रहते पंकज जैसे॥ बाहुर्बाल सम खडगासन में।
वीर प्रभु सम पद्मासन में॥ कदम उठाकर जब हो चलते। कुन्द-कुन्द से सच हो लगते॥ फसल आपकी महाघनी है।
लम्बी संत कतार तनी है॥ व्यापार आपका सीधा सादा। आर्या भी है सबसे ज्यादा॥ कभी आपको नहीं है घाटा।
माल खूब है बिकता जाता॥ दुकान देखो बढती जाये। नहीं कभी विश्राम ये पाये॥ जननी केवल जन्म है देती।
नहिं वो भव की नैया खेती॥ गुरुजी मांझी बनकर आते। अतः सभी से बडे कहाते॥ मल्लप्पा और मान श्री ही।
जिनके आंगन जन्में तुम जी॥ ज्ञान गुरु से लेके दीक्षा। कर दी सार्थक आगम शिक्षा॥ शिष्य जो होवे तुमसा होवे।
गुरु का जिससे नाम ये होवे॥ गुरु गौरव बन सच हो चमके। जयकारा सब बोले जम के॥ सौ-सौ जिह्वा मिल भी जायें।
युगों-युगों तक वो सब गायें॥ जयमाला हो कभी न पूरी। पूजन रहे सदा अधूरी॥ |
नाम अमर गुरु का किया विद्यासागर संत। गुरु के भी तुम गुरु बने सदा रहो जयवंत॥ |