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मुनि श्री 108 योगसागर जी महाराज

421 – निर्लोभ के ही, उर में सन्तोष का, कमल खिले।
422 – रत्न त्रय से, रोग धाम काया भी, निरोग बने।
423 – मोहित में ना, मोहित है कल्याण, निर्मोही में ही।
424 – पक्षपात से, परे निष्पक्ष से ही, आलोक मिले।
425 – नि:स्पृहता से, धर्म में अनुराग, वृद्धि होती है।
426 – मेरू समान, निश्चलता प्रत्येक, परिस्थिति में।
427 – जहाँ निष्कंप, ध्यान प्रदीप अघ, भस्मसात है।
428 – योगी योग में, लवलीन होते ही, योग निस्पंद।
429 – अध्यात्म मय, प्रमेश का जीवन, निरामय है।
430 – मुनिपद है, निरापद आपद, निवारता है।

431 – निराकुलता का, जीवन चंदन सा, महक उठे।
432 – संयम सान, पे चढ़े हीरा बने, निरुपम सा।
433 – निष्काम सन्त, आनन्द सागर में, सदा रमते।
434 – जैनागम के, श्रवण से जीवन, निरीह बने।
435 – पुरुषार्थ से, पुरुषार्थी निस्सीम, शान्ति पाते हैं।
436 – निर्ग्रन्थ सन्त, सप्त भयो से परे, निर्भिक रहे।
437 – जहाँ अपूर्ण, वहाँ परिवर्तन, पूर्ण में नहीं।
438 – जीवों की घातें, तो भी सदा पाप से, निर्लिप्त रहा।
439 – नत में ना है, मेहनत जीवन, बने उन्नत।
440 – प्रतिकार से, सँवर का ही जहाँ , सँवर होता।

441 – फ़रिस्त से ही, रिश्ता दुनिया से क्यों ? रहेगा रिश्ता।
442 – तेरी दर्श से, तेरी जैसी निज में, निज का दर्शन।
443 – तू है असीम, तन की ममता ने, सीमा में बाँधा।
444 – वस्तु स्वरुप, झलके समता के, दर्पण में ही।
445 – जिनका लक्ष्य, सँवर निर्जरा है, उन्हें क्या चिन्ता ?
446 – पूनम चाँद, बनो नहीं अमां की, रात बनना।
447 – प्रकृति से ही, प्रकृति चेतन की, विकृत हुई।
448 – अशुचि मय, पंक में सुरभित, पंकज खिले।
449 – जिस मान से, मान बढ़े वह ना, मान चाहता।
450 – ज्ञात होते हैं, विगत के विचार, कर्मोंदय से।

451 – अम्बर तज, दिगम्बर से पाये, चिदम्बर को।
452 – प्रकृति संग, पुरुष की प्रवृत्ति, विकृत हुई।
453 – शाब्दिक ज्ञान, म्यान है तलवार, शब्दातीत है।
454 – योद्धा नहीं है, लोहार हथियार, भले बनाये।
455 – नीचे उतारो, उबलते दूध को, तभी पी सको।
456 – पर घर में, भय है अभय है, निज घर में।
457 – तेरी सुक्रिया, शुक्रिया तुझको, प्रदान करें।
458 – सूर्य चाहता, प्रकाश में आना सो, राहु ग्रसता।
459 – शूल में फूल, फूल में शूल तुम, सदा निहारो।
460 – मैं अपने ही, मान का अपमान, कर रहा हूँ।

461 – इच्छा की ज्वाला, समता नीर से ही, बुझ जाती है।
462 – जिनके पास, सम्मान है सन्मान, जो ना चाहते।
463 – अध्यात्म भोज, बैरागी की क्षुधा को, शान्त करती।
464 – ग्रंथ वह है, आत्मा निर्ग्रंथ बने, अन्यथा ग्रंथी।
465 – ज्ञान विद्या में, भेदता सुधा वही, कुण्ड बदला।
466 – वैराग्य युक्त, ज्ञान सुधा अन्यथा, विष कुण्ड है।
467 – उपभोग में, उपयोग होना ही, शुद्धोपयोग।
468 – तमस बढ़े, जिस प्रकाश से ही, उससे बचे।
469 – चलते हुए, घटाओं को रोकते, ये दरखते।
470 – बाहर से ही, अन्दर हो करके, दर्शन करो।

471 – मूर्त अमूर्त, बनके अमूर्त को, मूर्त बनाया।
472 – कषाय ज्वाला, जलती राग-द्वेष, धुभ्र उठता।
473 – निवृत्ति में है, निर्वाण प्रवृत्ति में, भव भ्रमण।
474 – फूलों की भाँति, धर्म सुगंधी गुरु, बिखराते हैं।
475 – विस्मरण हो, विगत का उजाला, आगत में है।
476 – प्रतिशोध का, जहाँ अभाव वहाँ, उत्तम क्षमा।
477 – परदेश से, स्वदेश के लिए ही, गुरु देशना।
478 – छल से बनी, मछली छल द्वारा, छली जाती है।
479 – अज्ञानता ही, सभी समस्याओं का, मूल कारण।
480 – जैसी जिसकी, भावना उसे वैसी, फल मिलता।

481 – शरीर कहे, खिलाओ कितना भी, मैं शरीर हूँ।
482 – राह में राही, नानाविध मिलते, सावधान हो।
483 – विधि के नीचे, अक्षय निधि दीन, हीन क्यों बने ?
484 – आकर्षण की, चमक बाधक है, राहगीरों को।
485 – आकर्षण है, पिंजड़े के पंच्छी को, पिंजड़े से ही।
486 – अग्नि का पात्र, ईंधन त्यों जीव का, पात्र शरीर।
487 – प्रत्येक जीव, अनादि से है जैसा, बड़ा भेद क्यों ?
488 – खाता कोई है, ख़ुश होता है कोई, मोह कीसिका।
489 – प्रति समय, विगत के विचार, सामने आए।
490 – पुण्य-पाप में, समता रखना ही, मोक्षमार्ग है।

491 – भाव विहीन शब्द गंध रहित, फूल की भ्रांति।
492 – अहंकार का, विष सर्प की भाँति, प्रत्येक में है।
493 – विख्यात नहीं, होना है यथाख्यात, मुझे पाना है।
494 – धैर्य रखना, असाता में साता में, संयम रखें।
495 – पाप साँप सा, भव-भव में विष, उगलता है।
496 – आपकी स्तुति, निन्दा है प्रशंसा है, पुण्य की स्तुति।
497 – गुन गुनाता, भ्रमर उड़ता है, फूलों पे शांत।
498 – अनन्ते पक्षी, तीन-तीन पिंजड़ों, बीच बंध है।
499 – परहित में, निजी सुख खपाना, सच्ची सेवा है।
500 – कच्चे घर में, जो आनन्द है पक्के, घर में नहीं।

2 Comments

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  • jai jinendra,

    muni shri yogsagar ji maharaj ji ki jay ho ,muni shri ka chintan aur manan kitna gambhir hai yah unke dwara likhi gayi kawita se jalakta hai …….aur ho bhi kyu na akhir we hai bhi to acharya shri vidhyasagar ji ke suyogya shishya

  • 18-18 combination-
    Nauka jaise jo paaye guru
    bhav paar karaate khud tirkar
    har pal ja gyan ki chalti ghadi
    Kuch soojh padi kuch samajh padi

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