221 – असंयम तो, जंग लगा लोहा सो, बच के चलो।
222 – कली काल की, कली खिली खुश्बू, आर्त को लिये।
223 – प्रशंसा क्या है, शब्दों का झाँग ना है, इसमें सार।
224 – सन्त जो लखे, वही तो लिखे तभी, तो असर है।
225 – रईस बनो, सईस नहीं यही, गुरू की वाणी।
226 – बंट्टे का सोना, मृदुता को खोता यों, ज्ञान मद से।
227 – सूरि की वाणी, बांसुरी सी सुनाये, ब्रह्मनाद को।
228 – कांच का घर, तेरा पर घर पे, पत्थर फेकें।
229 – अध््राुव में क्या, ध्रुव अध््राुवता ही, यहाँ ध््राुव है।
230 – तू ने बनाई, रसोई परोसता, कोई और है।
231 – तपाना होगा, भाजन को दूध को, तपाना है तो।
232 – भगवान् से, राग हुआ धर से, वैराग्य हुआ।
233 – आये थे तुम, दुग्ध पान करने , क्यों छांच पीओ।
234 – कीच के बीच, बीज खीज ना रीज, का फल मिले।
235 – गमला मिला, फूल खिला गमला, सार्थक हुआ।
236 – अमूर्त को भी, मूर्त ने मूर्त किया, ज्यो दूध में घी।
237 – काल यम को, करूणा नहीं कौन, देगा शरण।
238 – नशा में निशा, कोई न दिखे दिशा, हुई दुर्दशा।
239 – दूषित मन, तेरा ही दुष्मन, लड़ो किससे।
240 – सुमन ही तो, तेरा सुमन गंध, बाहार कहाँ।
241 – अचेतन ने, चेतन को जगाया, स्वभान हुआ।
242 – बुझे दीपों को, दीपायन किया ओ, जयवन्त हो।
243 – ऐसे लब्ज को, ना निकालो नब्ज ही, गायब होय।
244 – चैत्यालय तो, बना सुन्दर पर, चैत्य ही नहीं।
245 – जन्म मृत्यु के, भवाब्धि में सतत, लहरे उठे।
246 – गुरू चिराग, जिसके तल नाही, अँधेरा दिखे।
247 – राग चिराग, चिरकाल से द्वेष, काजल छोडे।
248 – अमृत झील, अंतरीक्ष में शान्त, सुषोभित है।
249 – यह ब्रह्माण्ड, अराग विराग औ, राग से भरा।
250 – विद्वान नहीं, ज्ञानी बनो कल्याण, तभी संभव।
251 – उर की ग्रंथी, गले, गले से गले, सहज मिले।
252 – व्यंग भुजंग, दंस से भवान्तर, में भी विषाक्त।
253 – कहते नहीं, सहते आतम में, सदा रमते।
254 – ईक्षु वक्र हो, उसका मीठास क्या, वक्र होता है।
255 – गगन वासि, पंछी को नीड़ से क्यों, चिन्ता सताती।
256 – यों शुक्तिका में, मुक्ता कब से बन्ध, खोल के देखो।
257 – जो वर्णातीत, वर्ण से आवर्णित, है अवर्णनीय।
258 – ऊँचे दर्जे के, पात्रों में ना दोने में, खिलाता हूँ मै।
259 – व्यवधान हो, जिस अवधान से, सावधान हो।
260 – अवसर तो, मिला सर ना मिला, सो ना असर।
261 – तेरे किरण, तेरे को अस्ताचल, लेजाये सूर्य।
262 – तेरा बादाम, तेरे से ही फूटे ना, अन्यों के द्वारा।
263 – यो श्रमण के, नमन से मन भी, सुमन हुआ।
264 – पंकिल काया, पंकज ना खिले तो, क्या मूलय रही।
265 – पत्थर फेके, जो भी सीढ़ी बनाये, मंजिल पाये।
266 – तेरे भाव ही, तेरे को बन्ध – मोक्ष तुझे दिलाये।
267 – दोषों का कोष, रोष जहाँ न होष, ना संतोष है।
268 – जहाँ अनन्ते, सूर्यों का वास वहाँ, तम सभी है।
269 – मानापमान, से परे वर्धमान, मानतुंग है।
270 – बन्दकरना, खिड़कियाँ अन्दर, धूल आ रही।
271 – उठते हुये, तरंगो को निहारो, सच्ची साधना है।
272 – उपयोग का, उपयोग योग के, सयोग से है।
273 – यों जोती पंूज, भास्कर तमस में, क्यों भटक रहा।
274 – वीतरागी के, नस्कार में सदा, चमत्कार है।
275 – ध्यान से सुनो, गुरू कृपा बरसे, गुरू आज्ञ में।
276 – परमार्थ के, पुरूषार्थ में स्वार्थ, अभिषाप है।
277 – चारित्र द्वारा, आगम उजागर, करते साधु।
278 – तुम जौहरी, ज्वार मक्का सौदे में, आनन्दित हो।
279 – परोसते हो, व्यंजन बासी रोटी, तेरी थाली में।
280 – लक्ष्यानुसार, जीवन हो शीघ््रा ही, लक्ष्य की प्राप्ति।
281 – जंगली फूल, हर परिस्थिति में, महकता है।
282 – तेरा तुझे ही, आलोकित ना करे, आलोक कैसा।
283 – डाल का पंछी, कब कहाँ उड़ेगा, किसे पता है।
284 – घोड़े को तुम, खिलाते ही हो कब, सवार होंगे।
285 – दिगम्बरत्व, अन्तर जगत का, प्रवेष द्वार।
286 – भक्ति की शक्ति, अभिव्यक्ति करती, आत्मषक्ति को।
287 – आज्ञा में छिपी, प्रज्ञा कभी न होगी, तेरी अवज्ञा।
288 – अभिलाषायें, जिससे विलीन हो, वह तप है।
289 – वृष्ठी की दृष्टी, सृष्टी पे पड़े सृष्टि, दृष्टि बदले।
290 – वीतराग का, अनुभव हो वही, यथार्थ धर्म।
291 – आम बेचके, मिरच खरीदते, कैसा दुर्भाग्य।
292 – फूल शूल से, बचके चलो तभी, मंजिल मिले।
293 – असत्य ध्वज, कषाय स्तम्भ पे, लहराता है।
294 – अघपर्वत, जिससे पर्व होओ, महापर्व है।
295 – यष कुसुम, ये वाँ वाँ सुगन्ध से, सुगन्धीत है।
296 – आषा की उषा, निराषा की निषा में, डूब जाती है।
297 – परिषयों के, शूलों के बीच खिले, समता फूल।
298 – करो तप को, ऐसा तपन से हो, जीवन मुक्त।
299 – कर्तुत्व बुद्धी, जहाँ जले सतत, चिन्ता की ज्वाला।
300 – लघुतम को, गुरूतम बनाये, गुरूषरण।
301 – छल के द्वारा, छली जाती है वह, भोली मच्छली।
302 – विषधर को, छेडो नहीं अन्यथा, डसता ही है।
303 – विषधरों के, बीच रहते वह, सुधा क्या जाने।
304 – यमराज को, स्वागत में तत्पर, सच्चा अतिथि।
305 – कर्मों का मारा, बुलन्द जीवन भी, पतित होता।
306 – अज्ञानि प्राणी, खाल के ख्याल में, निज को भूला।
307 – मान शून्य हो, मानसुन धारा की धाय, बरस पडे।
308 – तुफा में नाव, बच जाय नाव में, तुफा ना बचे।
309 – आतम में है, आतम इसलिये, बहिरातम।
310 – विधि के बीच, निधी किस विधत, उसे पावोंगे।
311 – चिन्तन एक, मथानि नवनीत, जिससे पाते।
312 – फूल खिलते, मुरझाते मुरझे, फिर ना खिलते।
313 – विकार में तो, आकार अविकार, अनाकार है।
314 – भाग्य रेखा को, पुरूषार्थी ही सही, पढ़ पाता है।
315 – दैव में छिपी, महादेव की शक्ति, दानवता क्यो।
316 – गौर वर्ण का, सूरि सूरज धर्म, भोर फैलाय।
317 – अचेतन से, चेतन होने पर, चेतन दु:खी।
318 – उस बून्द को, चखोगे, पी सकोगे, सागर को भी।
319 – शील झील से, अनल भी बनता, शीतल नीर।
320 – अशुचि पंक, पंकज संगति से, पावन हुआ।
321 – क्षीर नीर भी, मधुर बने-करो, तपाराधना।
322 – सिर्फ ना तुम, बोलना जीवन में, कुछ बोलो भी।
323 – विकास किया, बून्द ने रुप लिया,महा सिन्धू में।
324 – मिली ही नहीं, मंज़िल गाड़ियाँ ही, बदली गयी।
325 – सुप्त भुजंग, भरोसा नहीं कब, वो जग जाए।
326 – मैं शून्य ही था, संख्या के पीछे हुआ, मूल्यता आई।
327 – उपवास में, निवास आवास की, क्या ज़रूरत ?
328 – नेक अनेक, कार्य करें अनेक, एक भी नहीं।
329 – सार्थक बीज, वही है फलदार, वृक्ष बनता।
330 – लहरों से तो, तृष्णा बढ़े नीर से, तृष्णा मिटती।
331 – मोह व मल, अमन में रमन, करे श्रमण।
332 – सर्पों के बीच, नेवलाओं की भाँति, शान से रहो।
333 – अवर्णित को, अनावरणकर्ता, दिगम्बरत्व।
334 – शास्त्र सुनाते, हरी से हरी बने, तुम तो नर हो।
335 – दो शक्तियों का, संघर्ष का कृत्य ही, बना संसार।
336 – वस्तु स्वभाव, जो जानता उसे ना, चिन्ता सताती।
337 – मंज़िल मिले, चढ़ाव-उतार के, बिना नहीं है।
338 – घटाये उठे, सागर से गर्ज के, वही बरसे।
339 – जीवन क्या है ? जी, वन नहीं यह, नन्दनवन।
340 – पंक में खिले, पंकज नहीं खिले, हर पंक में।
341 – वैराग्य हीन, ज्ञान फिके व्यंजन, भाँति लगता।
342 – दर्शक बनो, प्रदर्शक न बनो, दर्शन मिले।
343 – मायूस क्यों हो, पीयूष हो के क्यों कि, आयुष्माधिन।
344 – लघुमति भी, गुरुकुल हो जाती, सुसंयम से।
345 – शुद्ध जल में, पत्थर फेंकने से, मैला न होता।
346 – रत्नत्रय से, रोग धाम काया भी, निरोग बने।
347 – प्रदर्शक ना, बनो दर्शक बनो, दर्शन मिले।
348 – प्रति समय, सुधा पान भय से, आक्रांत क्यों ?
349 – अभिमानी ने, अभिमानी है सुना, गुरुवाणी को।
350 – जिनकी वाणी, जिन ने भी सुनी है, जिन बने हैं।
351 – शिक्षा होती है, जीवन की जीविका, के लिये नहीं।
352 – भू-मण्डल पे, कुण्डल सी प्रतिभा, मण्डल डोले।
353 – रंग-पंचमी, बाहर-भीतर हो, रंग ले बचो।
354 – खुले लोचन, अन्तस के उनकी, क्या आलोचना ?
355 – पाप-पुण्य के, खटक को जीतो मिले, मुक्ति अवार्ड।
356 – वह क्यों तुम, कहते हो जो कभी, करते नहीं।
357 – कर्म को वारो, ऐसा जिस कर्म से, कर्म भस्म हो।
358 – कठपुतली, ना चर ही चालाक, कहीं ना दिखे।
359 – ज्ञानी हो कभी, है मूर्ख स्व को नहीं, पर को जाने।
360 – अहिंसा-दीप, उर में जलाओ तो, रोज़ दिवाली।
361 – कली काल की, कलि खिली सुर भी, आर्त को लिये।
362 – अर्जित धन, परिमार्जित होता, दान-धर्म से।
363 – भूल स्वीकारो, भूल सुधारो कभी, भूल ना करो।
364 – कल्याण सेना, कल्याण है कल्याण, तजो कल्याण।
365 – वर्णातीत है, तेरा आत्मा दृष्टि क्यों ?, चर्म वर्ण से।
366 – कुल्हाड़ी मिली, लेकिन बे दण्ड की, मूठ लगी है !
367 – गद्य-पद्य में, यमक नमक सा, सरस लाये।
368 – रवि शब्दों को, विलोम कर पढ़ो, वीर का दर्श।
369 – शास्त्र सुनाते, हरी से हरी बने, तुम तो नर।
370 – मोह का ताज, सब ने लगाये सो, मोहताज हैं।
371 – वैराग्य कली, ध्यान सूर्योदय में, खिले महके।
372 – समयसार, गाथा तेरी जीवन, गाथा को गाये।
373 – सुख-दु:ख के, आवेग को सम्हालें, वह योगी है।
374 – तेरी प्रवृत्ति, तुझे ही अद्य: उर्ध्व, मुखी बनाती।
375 – कवि है रवि, अन्तर-जगत को, रोपण करे।
376 – मैं एक बीज, जिससे घोर घने, जंगल बने।
377 – बिन कारण, कषाय करे पूर्व, जन्म का बैरी।
378 – गीली लकड़ी, जले कम धूम ही, ज़्यादा निकाले।
379 – वीतरागी की, आराधना किसी की, ना विराधना।
380 – हिंसा को करे, परिहार निज में , करे विहार।
381 – अहम का है, जहाँ वहम वहाँ, है ना रहम।
382 – पिंजड़े को ही, निज नीड़ समझे, पंच्छी ओ मूर्ख।
383 – लालसाओं में, ना लालसा स्व लाल, निजाधीन है।
384 – जहाँ संदेह, वहाँ दिल से दिल, फ़ासले दिखे।
385 – गुरुवाणी है, खुरमाणी क्यों नहीं, सुने नादानी।
386 – राहु ग्रसित, अनन्तानन्त सूर्य, दिखाई देते।
387 – रंग-बिरंगी, तरंगें उठ रही, अन्तरंग में। च
388 – पारदर्शक, जीवन हो काँच सा, दर्पण नहीं।
389 – देह दही को, दण्डित करे तो क्यों ? देह दासता।
390 – भक्त की भक्ति, सर्वोपरि जो सदा, प्रसन्नता में।
391 – चर्म में नहीं, शर्म शर्म का धाम, चर्म में छिपा।
392 – प्रदर्शन तो, प्रदुर्षण विकृत, हुआ दर्शन।
393 – अमां की रात, मार्दव का मनीका, रात पूनम।
394 – आकर्षण के, अभाव में जीवन, उत्कर्ष होगा।
395 – तू है चिन्मय, मृत्यु यतन में क्यों, तन्मय होता।
396 – मान शून्य हो, मानसून बरसे, शीतलमयी।
397 – लोक चूल पे, दीपक बिन ज्योति, अनन्त जले।
398 – उषा के पीछे, निशा नहीं अपेक्षा, उस उषा की।
399 – उर्ध्व के बाद, अंध: नहीं अपेक्षा, उस उर्ध्व को।
400 – चर्म में नहीं, शर्म शर्म का धाम, चर्म में छिपा।
401 – सन्त जीवन, बसन्त सा नाक भी, पतझड़ है।
402 – कटेली झाड़ी, काट के फलदार, वृक्ष लगायें।
403 – सन्तरा नहीं, अखण्ड सेव बनो, एक अखण्ड।
404 – नाना फूलों से, सुगंधित बगिया, शुचिमय है।
405 – सूर्योदय से, निशा का निशान भी, कहीं न दिखे।
406 – लगाम युक्त, अश्व सही मंज़िल, पहुँचाता है।
407 – क्षार नीर भी, मधुर बने करो, तपाराधना।
408 – त्यागा विभाव, दूध ने घृत रूप, स्वरुप पाया।
409 – शुद्ध घृत में, किंचित खटास का, अंश नहीं है।
410 – नाम का कीड़ा, नीम छोड़ आम्र में, रम जाता है।
411 – आराधना से, चिराग़ भी शीतल, निरोग बने।
412 – पूज्य नीरज, चरणों में नीरज, समर्पित है।
413 – कलंकित को, पुनीत बोध करे, सुनिकलंक।
414 – निर्मद पुष्प, जब खिले पावन, सौरभ बहे।
415 – हटाओ तुम, कर्मों का उपसर्ग, निसर्ग दिखे।
416 – निस्संग मुनि, पावन से निज में, विचरते हैं।
417 – हिम का खण्ड, अग्नि से घिरा हुआ, तो भी शीतल।
418 – कठिन लोहा, पारस से बनता, मृदु कनक।
419 – नि:स्वार्थ में है, सत्य-धर्म की शक्ति, सदा अजेय।
420 – जहाँ निर्दोष, पवन बहे वहाँ , ना प्रदूषण।
jai jinendra,
muni shri yogsagar ji maharaj ji ki jay ho ,muni shri ka chintan aur manan kitna gambhir hai yah unke dwara likhi gayi kawita se jalakta hai …….aur ho bhi kyu na akhir we hai bhi to acharya shri vidhyasagar ji ke suyogya shishya
18-18 combination-
Nauka jaise jo paaye guru
bhav paar karaate khud tirkar
har pal ja gyan ki chalti ghadi
Kuch soojh padi kuch samajh padi